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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् उसी सन्दर्भ में एक ओर महत्त्वपूर्ण प्रसङ्ग बना स्थानकवासी जैन परम्परा के अन्तरवर्ती श्री नानक आम्नाय के संघनायक स्वाध्याय शिरोमणी, आगम वारिधि, आशुकवि रत्न स्व. आचार्य श्री सोहनलाल जी म. सा. का उनके जीवन के अंतिम चार वर्षों में नैकट्यपूर्ण सान्निध्य प्राप्त रहा । उनके युवा अंतेवासी मुनि श्री सदर्शनलालजी (वर्तमान में आचार्य श्री सदर्शन मनिजी) तथा प्रियदर्शन जी को उनकी छत्र छाया में अध्ययन कराने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ । संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, साहित्य, दर्शन, काव्य शास्त्र, नीतिशास्त्र, योग शास्त्र आदि अनेक विषयों के साथ-साथ मैंने उनको आगमों का अध्ययन भी करवाया।
स्व. आचार्यश्री सोहनलाल जी की भावना के अनुसार वि. सं. २०५२ को गुलाबपुरा में सूत्रकृताङ्ग पर शीलाङ्काचार्य कृत टीका का अध्ययन चालू कराया जो आचार्य प्रवर के राताकोट प्रवास में आचार्य प्रवर इससे बड़ी हर्षानुभूति करते थे।
देश विदेश के अनेकों उच्च कोटि विद्वानों ने द्वादशाङ्ग के अंतर्गत सूत्रकृताङ्ग को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना है । डॉ. हरमन, डॉ. पिशेल आदि विद्वानों ने भाषा की दृष्टि से आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग को प्राचीनतम अर्द्धमागधी प्राकृत का रूप लिए हुए बतलाया है । .
सूत्रकृताङ्ग में जैनेतर दार्शनिक मतवादों की जो चर्चा आई है, वह दार्शनिक वाङ्मय तुलनात्मक दृष्टि से बहुत उपयोगी है, यही एक ऐसा आगम है जिसमें जीव, जगत, कर्म आदि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दर्शनवादियों के सिद्धान्त निरूपित हुए है।
सूत्रकृतान में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, क्षणिकवाद, पंचभूतवाद, आत्मषष्ठवाद आदि का जो विवेचन आया है वह किसी एक-एक दर्शन का विशद स्पष्ट रूप लिए हुए तो नहीं है किन्तु कुछ सांकेतिकताएं वहाँ अवश्य है जिसमें इन सिद्धान्तों की भिन्न-भिन्न दर्शनों के साथ पहचान की जा सकती है । __सूत्रकृताङ्ग में आये विभिन्न दर्शन विषयक विवेचनों से यह प्रकट होता है कि तब तक वर्तमान में जो दर्शन उपलब्ध है अपना परिष्कृत, परिनिष्ठित स्वरूप प्राप्त नहीं कर सके थे। दर्शनों के विकास का संभवतः वह प्रारम्भिक युग था । विभिन्न मतवादी विशेषतः किसी एक सिद्धान्त पर जोर देकर अपना मतवाद खड़ा करते थे । जो भी वर्णन हुआ है, वह अनुसंधित्सुओं को इस सम्बन्ध में और अधिक गहन अध्ययन और अनुसंधान की प्रेरणा प्रदान करते है । विशेषतः शोधकर्ताओं को इस पक्ष पर अधिक ध्यान देना चाहिए । इनके अध्ययन से दर्शन के क्षेत्र की अनेक गुत्थियां सुलझ सकती है ।
आगम साहित्य की जैन जगत में सदा से महत्ता और उपयोगिता स्वीकृत रही है, इसी कारण नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के रूप में इन पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया । नियुक्तियाँ आर्या-गाथा छन्द में प्राकृत में रचित है, उनमें सूत्र में निश्चित किए हुए-निश्चयात्मक रूप में प्रतिपादित किए हुए अर्थ या तात्पर्य का विवेचन है, विवेचन को बोधगम्य बनाने के लिए अनेक कथानकों दृष्टान्तों का प्रयोग किया गया है, जिनका इनमें केवल उल्लेख प्राप्त होता है, यह बहुत ही सांकेतिक और संक्षिप्त विवेचन लिए हुए है, इन्हें भाष्य और टीकाओं के सहारे के बिना समझा जाना कठिन है । अतः आगमों के टीकाकारों ने आगमों पर टीकाओं के साथ-साथ नियुक्तियों पर भी प्रायः टीकाएं रची है, एक विशेषता की बात अवश्य है कि पद्यात्मक रूप में संक्षिप्त रचना होने के कारण इन्हें कण्ठाग्र रखना सरल था, अतएव धर्म प्रवचन में इन्हें उद्धृत किया जा सकता था । परम्परा से ऐसा माना जाता है कि आचार्य द्वितीय भद्रबाहु जो अष्टाङ्ग निमित्त और मन्त्र विद्या में निष्णात थे, नियुक्तियों के रचनाकार थे ।
जिस प्रकार नियुक्तियों की प्राकृत गाथाओं में रचनाएं हुई उसी प्रकार भाष्यों की भी रचनाएं हुई, नियुक्तियों की भाषा और भाष्यों की भाषा प्राचीन अर्द्धमागधी है । भाष्यों में मुख्यतः निशीथ भाष्य, व्यवहार भाष्य और
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