Book Title: Sutrakritang Sutra Author(s): Sudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri Publisher: Shwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi SanghPage 16
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् जैन धर्म का प्राचीन साहित्य आगमों के नाम से विख्यात है । आगम का अर्थ वह ज्ञान का विशिष्ट प्रवाह है, जो दीर्घकाल से चला आ रहा हो । आगम सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा भाषित है, तीर्थंकरों की एक लम्बी श्रृंखला है, जो चौबीस-चौबीस की ईकाइयों में बँटी हुई है, उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल से संपृक्त है, वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीसवें - अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने जो धर्म देशना दी वह जैन आगमों के रूप में हमें प्राप्त है। भगवान महावीर का कार्यक्षेत्र मुख्यतः वे भू-भाग रहे, जो मुख्यत: आज के बिहार के अन्तर्गत थे। तब उत्तर भारत में मुख्यतः मागधी, अर्द्ध मागधी तथा शौरसैनी आदि प्राकृत भाषाओं का प्रसार था, मगध जो बिहार का दक्षिणी भाग था-में मागधी प्राकृत प्रचलित थी, उत्तर भारत में-पश्चिमांचल में शौरसेनी प्राकत का प्रचलन था, जो व्रज मण्डल या मथुरा तक व्याप्त थे, इन दोनों-मागधी एवं शौरसैनी के बीच की जो भाषा थी, उसे अर्द्ध मागधी कहा जाता था, उसमें मागधी एवं शौरसैनी दोनों के लक्षण मिलते थे । इसलिए वह ऐसी भाषा थी जो मागधी, शौरसैनी तथा उसके अन्तर्वर्ती क्षेत्र में रहने वाले लोगों द्वारा समझी जा सकती थी। वह एक प्रकार से प्राकृत क्षेत्र की सम्पर्क भाषा थी, जिसे भाषा विज्ञान में Lingua-Fvanca कहा जाता है। भगवान महावीर अपनी धर्म देशना में अर्द्ध मागधी का ही प्रयोग करते थे । समवायाङ्ग सूत्र में इसका विशेष रूप से उल्लेख है ।। दशवैकालिक वृत्ति' में भी लिखा गया है कि चारित्र-धर्माचरण की आकांक्षा-अभिलाषा रखने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख-अपण्डित इन सभी लोगों पर अनुग्रह करने के हेतु तत्त्व दर्शियों ने प्राकृत में सिद्धान्तों का निरूपण किया । धर्मोपदेश में अर्द्ध मागधी के उपयोग का मुख्य आशय यह था कि श्रोतृगण धर्म देशना को सीथे-बिना किसी व्यवधान के या बिना किसी मध्यवर्ती व्याख्याकार के धर्म तत्व को सहज रूप में स्वायत्त कर सके । र आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख है कि अर्हत्-तीर्थंकर अर्थभाषित-प्रतिपादित करते है, गणधर-धर्मशासन या धर्म संघ के कल्याणार्थ निपुणता-कुशलतापूर्वक सूत्र रूप में उसका संग्रन्थन करते है, इस प्रकार सूत्र का प्रवर्तन होता है। __भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट तथा उनके प्रमुख अन्तेवासी गणधरों द्वारा संग्रथित उपदेश निम्नांकित १२ अङ्गों के रूप में विभाजित है - १. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय; ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक, १२. दृष्टिवाद २. भगवं च णं अद्धमागहीए भाषाए, धम्ममाइक्खइ । सवि य णं अद्ध मागही भासा भासिज्जमाणी तेर्सि सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चठप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरीसिवाणं अप्पणो हियसिव-सुहय भासत्ताए परिणमई । - समवायाङ्ग सूत्र-३४.२२.२३ बाल स्त्री वृद्ध मूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ - दशवैकालिकवृत्ति, पृष्ठ-२२३ अत्थं भासइ अरहा, सुतं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवेत्तइ ॥ - आवश्यक नियुक्ति ९२ । xii ३.Page Navigation
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