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की ही मुख्यता है। मन की पवित्रता-शुद्धि से अध्यवसाय निर्मल बनते हैं, जिससे अशुभ कर्मों के प्रास्रव-द्वार बन्द हो जाते हैं और संवर-निर्जरा धर्म की आराधना होती है।
(५) संगत्याग-संगत्याग अर्थात् बाह्य परिग्रह का त्याग । परिग्रह के त्याग से आकिंचन्य धर्म की साधना होती है । संगत्याग अर्थात् पौद्गलिक पदार्थों के प्रति रही हुई ममता और प्रासक्ति का त्याग ।
(६) प्रार्जव-आर्जव अर्थात् सरलता। माया और वक्रता का अभाव। आत्मा के लिए माया महा अनर्थकारी है । पूर्व भव में मायाचार के कारण ही मल्लिनाथ भगवान को भी स्त्री के रूप में जन्म लेना पड़ा था।
(७) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मा के स्वरूप में रमण करना । ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्रात्मा का स्वरूप है। उस स्वरूप में लीन बनने वाला ही सच्चा ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचर्य का दूसरा अर्थ इन्द्रिय-संयम, गुरुकुलवास आदि भी है।
(८) विमुक्ति-विमुक्ति अर्थात् लोभ का त्याग। लोभ तो सभी पापों का बाप है। जैसे आकाश का कोई अन्त नहीं है, वैसे ही लोभी की इच्छा का भी कोई अन्त नहीं है। विमुक्ति अर्थात् सन्तोष धारण करना।
(९) संयम--संयम अर्थात् मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना। काया से जीवहिंसादि नहीं करना, वचन से मिथ्या, कटु व अहितकर वचन नहीं बोलना और मन से किसी का भी अहित-चिन्तन नहीं करना ।
शान्त सुधारस विवेचन-८