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प्रतिज्ञा की जाती है, अतः इस प्रतिज्ञा के पालन के लिए साधु किसी भी प्रकार से झूठ नहीं बोलते हैं ।
(२) क्षमा-क्षमा अर्थात् क्रोध के प्रसंग में भी क्रोध नहीं करना। क्रोध के प्रसंग को निष्फल बना देना। क्रोध अग्नि तुल्य है और क्षमा उस अग्नि को शान्त करने वाला जल है । आग और जल के युद्ध में जल की ही विजय होती है। क्रोध और क्षमा के युद्ध में क्षमा ही विजय की वरमाला धारण करती है। कमठ दस-दस भवों तक क्रोध की ज्वालाएँ भड़काता रहा, किन्तु पार्श्वनाथ प्रभु ने क्षमा के जल से सभी ज्वालाओं को शान्त कर दिया।
अग्निशर्मा ने नौ-नौ भवों तक वैर की आग बरसाई किन्तु गुणसेन ने क्षमा के जल से उस प्राग को सदा के लिए बुझा दिया।
(३) मार्दव-मार्दव अर्थात् मृदुता। किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं करना अर्थात् सदा नम्र बनकर रहना। जाति, कुल, रूप आदि का अभिमान करने से भयंकर कर्मों का बंध होता है। भविष्य में उन वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। अभिमान करने से नवीन कर्मों का भी बंध होता है।
विनय-नम्रता तो सर्व गुणों का मूल है। विनय से विद्याज्ञान, ज्ञान से विरति, विरति से आस्रव-निरोध अर्थात् संवर का फल तप तथा तप का फल निर्जरा और निर्जरा का फल कर्ममुक्ति अर्थात मोक्षपद की प्राप्ति है ।
(४) शौच-शौच अर्थात् अभ्यन्तर शुद्धि । परिणामों की निर्मलता। जैन शासन में बाह्य शौच गौरण है, अभ्यन्तर शौच
शान्त सुधारस विवेचन-७