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(४) भाव-चारों प्रकार के धर्मों में एक अपेक्षा से भाव धर्म की ही प्रधानता है। भाव धर्म से सापेक्ष दान ही-दानधर्म मुक्तिसाधक बन सकता है। भाव से रहित दान, दान नहीं है । भाव से रहित शील, शील नहीं है और भाव से रहित तप, तप नहीं बल्कि कायकष्ट मात्र है ।
भाव धर्म अर्थात् आत्मा के शुद्ध परिणाम ।
आत्मा अपने अध्यवसाय (भाव) के अनुसार ही कर्म से बँधती है और मुक्त बनती है। ___शुभ क्रिया करते हुए भी यदि भाव अशुभ हैं तो वह क्रिया मोक्षसाधक बनने के बजाय संसारवर्धक ही बनती है और अशुभ क्रिया करते हुए भी यदि आत्मा के अध्यवसाय शुभ और निर्मल हैं, तो आत्मा कर्म का अल्पबंध और अधिक निर्जरा ही करती है।
इस प्रकार उपर्युक्त चार प्रकार के धर्म त्रिलोकबन्धु जिनेश्वरदेव ने बतलाए हैं। तीर्थंकर भगवान समवसरण में बैठकर धर्मदेशना देते हैं उस समय भगवान का मुख तो पूर्व दिशा की अोर होता है, अन्य तीन दिशाओं में देवता प्रभु की प्रतिकृति स्थापित करते हैं। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरिजी म. प्रभु की स्तुति करते हुए फरमाते हैं कि -
दान-शील-तपो-भाव-भेदाद् धर्म चतुर्विधम् ।
मन्ये युगपदाख्यातु चतुर्वक्त्रोऽभवद् भवान् ॥ हे प्रभो! दान, शील, तप और भाव रूप चार प्रकार के धर्मों को एक साथ कहने के लिए ही आपके चार मुख हो गये हैं, ऐसा मैं मानता हूँ।
शान्त सुधारस विवेचन-५