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तीन वाचनाये . पाटलिपुत्र के सम्मेलन में सिद्धांत के रूप में संकलित कर लिया गया । यही जैन आगमों की पाटलिपुत्र वाचना कही जाती है।'
कुछ समय पश्चात् महावीरनिर्वाण के लगभग ८२७ या ८४० वर्ष बाद (ईसवी सन् ३००-३१३ में) आगमों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिये आयेस्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में एक दूसरा सम्मेलन हुआ। इस समय एक बड़ा अकाल पड़ा जिससे साधुओं को भिक्षा मिलना कठिन हो गया और आगमों का अभ्यास छूट जाने से आगम नष्टप्राय हो गये | दुर्भिक्ष समाप्त होने पर इस सम्मेलन में जो जिसे स्मरण था उसे कालिक श्रुत के रूप में एकत्रित कर लिया गया। इसे माथुरी वाचना के नाम से कहा जाता है। कुछ लोगों का कथन है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुत का नाश नहीं हुआ, किन्तु आर्यस्कंदिल को छोड़कर अनेक मुख्य-मुख्य अनुयोगधारियों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। . इसी समय नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में वलभी में एक और सम्मेलन भरा । इसमें, जो सूत्र विस्मृत हो गये थे उन्हें स्मरण करके सूत्रार्थ की संघटनापूर्वक सिद्धांत का उद्धार किया
१. आवश्यकचूर्णी २, पृष्ठ १८७ । तथा देखिये हरिभद्र का उपदेशपद:
जाओ अ तम्मि समये दुकालो दो य दसम वरिसाणि । सव्वो साहुसमूहो गओ तो जलहितीरेसु ॥ तदुवरमे सो पुणरवि पाटलिपुत्ते समागओ विहिया। संघेणं सुरविसया चिंता किं कस्स अस्थेति ॥ जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणमाइसंघडिउं ।
तं सव्वं एक्कारय अंगाई तहेव ठवियाई॥ २. नन्दीचूर्णी पृष्ठ ८।