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प्राकृत साहित्य का इतिहास
तीन वाचनायें जैन परंपरा के अनुसार महावीरनिर्वाण' के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (ईसवी सन् के पूर्व लगभग ३६७ में ) चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में, मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा जिससे अनेक जैन भिक्षु भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गये | बाकी बचे हुए स्थूलभद्र (स्वर्गगमन महावीरनिर्वाण के २१६ वर्ष पश्चात् ) के नेतृत्व में वहीं रहे | दुष्काल समाप्त हो जाने पर स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में जैन श्रमणों का एक सम्मेलन बलाया जिसमें श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने के लिये खंड-खंड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। लेकिन दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था इसलिये पूर्वो का संकलन नहीं हो सका। चतुर्दश पूर्वधारी केवल भद्रबाहु थे, वे उस समय नेपाल में थे । ऐसी हालत में संघ की ओर से पूर्वो का ज्ञान-संपादन करने के लिये कुछ साधुओं को नेपाल भेजा गया। लेकिन इनमें से केवल स्थूलभद्र ही टिक सके, बाकी लौट आये। अब स्थूलभद्र पूर्वो के ज्ञाता तो हो गये किन्तु किसी दोष के प्रायश्चित्तस्वरूप भद्रबाहुने अन्तिम चार पूर्वो को किसी को अध्यापन करने के लिये मना कर दिया। इस समय से शनैः-शनै पूर्वो का ज्ञान नष्ट होता गया। अस्तु, जो कुछ भी उपलब्ध हुआ उसे
१. महावीरनिर्वाण का काल मुनि कल्याणविजयजी ने बुद्धपरिनिर्वाण के १४ वर्ष बाद ईसवी पूर्व ५२७ में स्वीकार किया है, 'वीरनिर्वाण संवत् और कालगणना', नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जिल्द १०११ । तथा देखिये हरमन जैकोबी का 'बुद्ध उण्ड महावीराज़ निर्वाण' आदि लेख जिसका गुजराती अनुवाद भारतीय विद्या, सिंघी स्मारक में छपा है; तथा कीथ का बुलेटिन स्कूल ऑव ओरिएण्टेल स्टडीज़ ६,८५९८६६; शूबिंग, दी लेहरे डर जैनाज; पृष्ठ ५, ३०, डॉक्टर हीरालाल जैन, नागपुर युनिवर्सिटी जरनल, दिसम्बर, १९४० में 'डेट ऑव महावीराज निर्वाण' नामक लेख ।