________________
उक्त संस्करण के समाप्त हो जाने पर उसे अपने विषय का अपभ्रंश का आद्य गौरव ग्रन्थ मानकर प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं प्राचीन हिन्दी के महारथियों के विशेष अनुरोध पर प्रो. (डॉ.) देवेन्द्र कुमार जैन (इन्दौर ) ने अल्मोड़ा के एक शासकीय कॉलेज में प्राध्यापकी करते हुए साधनाभावों के मध्य भी इस महाग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का दुरूह कार्यारम्भ किया था और कठोर परिश्रम कर इसे पूर्ण किया था, जिसके प्रथम बार प्रकाशन का श्रेय भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली को है, जिसने उसे अभी हाल में 5 खण्डों में प्रकाशित किया है। दुर्भाग्य यही रहा कि अनुवादक इसके प्रकाशन को साक्षात् देखे बिना ही चल बसा।
यह ग्रन्थ जितना सरस, प्रेरक एवं रोचक है, उतना ही मार्गदर्शक भी। पं. नाथूराम प्रेमी को एक प्राच्यशास्त्र भण्डार में जब उसकी वि.सं. 1615 में लिखित पाण्डुलिपि मिली और उसके आदि एवं अन्त की प्रशस्ति पढ़ी, तो गद्गद् हो उठे।' सन् 1923 ई. में जब उन्होंने उसका विस्तृत मूल्यांकन कर अपना शोध- निबन्ध लिखा तथा प्रो. डॉ. हीरालाल जैन, प्रो. ए. एन. उपाध्ये तथा पं. जुगलकिशोर मुख्तार के सुझावों के बाद उसका संशोधित रूप जैनगजट (सन् 1926) एवं अनेकान्त (4/6-8) में प्रकाशित कराया तो विद्वज्जगत् में उसकी विशेष प्रशंसा की गई। प्रो. हीरालाल जी तो उससे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने संस्कृत का क्षेत्र बदल कर अपने को अपभ्रंश- साहित्य की खोज के लिए ही समर्पित कर दिया । पुष्पदन्त-साहित्य ने आधुनिक प्राच्य भाषा जगत् को जो प्रेरणा दी और अभी तक अपभ्रंश-साहित्य की जितनी भी खोज- शोध हुई एवं उसका प्रकाशन हुआ है, उसका सारा श्रेय पुष्पदन्तसाहित्य तथा उसके आद्य पुरस्कर्ता पं. नाथूराम प्रेमी को है ।
(2) उक्त श्रेणी का दूसरा ग्रन्थ है, महाकवि रइधू कृत तिसट्ठिमहापुराणपुरिसायारगुणालंकारु (अपरनाम महापुराण) । इस ग्रन्थ की भाषा सान्ध्यकालीन अपभ्रंश है। यह ग्रन्थरत्न अद्यावधि अप्रकाशित है। इस ग्रन्थ का विस्तार 50 सन्धियों के कुल 1347 कडवकों में हुआ है। इनमें से पार्श्वनाथ का कथानक 35वीं सन्धि के केवल 25 कडवकों में उपलब्ध है। इनमें ग्रन्थारम्भ मगध नरेश श्रेणिक के प्रश्न एवं गौतम गणधर के उत्तर के साथ हुआ है। पार्श्वचरित का प्रारम्भ पार्श्व के भव भवान्तर - कथन से
हुआ है ।
पार्श्व सम्बन्धी स्वतन्त्र प्रकाशित अपभ्रंश चरित-साहित्य
दूसरी विधा के ग्रन्थों में अपभ्रंश के अन्य उपलब्ध स्वतन्त्र पार्श्वनाथ चरितों में आचार्य पउमकित्ति विरचित पासणाहचरिउ (11वीं सदी, प्रकाशित, 18 सन्धियाँ तथा 315 कडवक), महाकवि बुध श्रीधर कृत पासणाहचरिउ (12वीं सदी, प्रकाश्यमान, 12 सन्धियाँ तथा 235 कडवक) तथा महाकवि रइधू कृत पासणाहचरिउ ( 15वीं - 16वीं सदी, प्रकाशित, 7 सन्धियाँ तथा 142 कडवक) ही प्रकाशित है।
1.
2.
यही है तीर्थंकर पार्श्व के इतिहास तथा उनसे सम्बन्धित बहुआयामी साहित्य लेखन एवं प्रकाशन की संक्षिप्त पृष्ठभूमि। उसकी समग्रता पर विशद विचार कर पाना यहाँ सम्भव नहीं । अतः आगे अपभ्रंश - साहित्य के महत्व पर संक्षिप्त विचार कर प्रकृत विषय — बुध श्रीधर कृत पासणाहचरिउ पर परिचयात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है—
दे. जैन साहित्य संशोधक शोध पत्रिका (जुलाई, 1923) ।
यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाशित है। इसकी सम्पादित प्रतिलिपि इन पंक्तियों के लेखक के पास सुरक्षित हैं। समय-समय पर एतद्विषयक निबन्ध विभिन्न शोध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। विशेष के लिये जैन सिद्धान्त भास्कर 28/1 जुलाई 1975 का अंक देखें।
26 :: पासणाहचरिउ