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उपलब्ध उक्त साहित्य का वर्गीकरण
जो ग्रन्थ उपलब्ध एवं ज्ञात हैं, उन्हें दो-दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथमतः तो वे पार्श्वचरित, जो त्रिषष्ठिशलाकामहापुराण-पुरुषचरित (अपरनाम महापुराण) के अन्तर्गत संक्षेप में वर्णित हैं। ऐसी दो रचनाएँ अद्यावधि उपलब्ध हैं
(1) अभिमानमेरु, काव्य-पिशाच जैसे विरुदधारी तथा प्रकृति से अत्यन्त स्वाभिमानी महाकवि पुष्पदन्त कृत तिसट्ठिमहापुराण-पुरिसगुणालंकारु (9वीं सदी)- इसमें ग्रन्थारम्भ में मगध सम्राट् श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर स्वरूप भगवान महावीर के पट्टशिष्य गौतम-गणधर द्वारा शलाका-महापुरुषों के चरितों का कथन किया गया है। तदनुसार
त रचना में जैन-परम्परा के 63 महापरुषों के चरितों का संक्षिप्त वर्णन है। ग्रन्थ का वर्ण्य-विषय 102 सन्धियों के कल 1967 कडवकों में समाप्त किया गया है। इनमें से पासणाहचरिउ का कथानक सन्धि संख्या 93 एवं 94 के मात्र (15+15=) 30 कडवकों में वर्णित है।
इसमें कवि ने पार्श्वचरित के कथानक का प्रारम्भ उनके पुनर्जन्मों में से (1) मरुभूति, (2) वज्रनाभि, (3) आनतस्वर्गेन्द्र, (4) आनत एवं (5) पार्श्व तथा मरुभूति के भाई कमठ के पुनर्जन्मों में से (1) भिल्ल, (2) नारक, (3) सिंह, (4) नारक एवं (5) राजा महीपाल के भवों का वर्णन किया है।
इसमें सन्देह नहीं कि कथानक संक्षिप्त है किन्तु वह सरस, रोचक एवं प्रवाहपूर्ण है। सीधी-सादी सरलभाषा एवं मार्मिकता तथा प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से उसका पुरुषार्थ एवं स्वाभिमान के चित्रण का एक उदाहरण देखिए
खग्गें मेहें कि णिज्जलेण तरुणा सरेण किं णिप्फलेण ? मेहें कामें किं णिददवेण मणिणा कलेण किं णित्तवेण ?
कव्वें णडेण किं णीरसेण रज्जें भोज्जें किं परवसेण? 57/7/1-3 अर्थात् पानी रहित मेघ एवं खड्ग से क्या लाभ? फल-विहीन वृक्ष एवं बाण से क्या लाभ? द्रवित न होने वाले मेघ एवं काम से क्या लाभ? तपरहित मुनि और अकर्मण्य कुल किस काम का? नीरस काव्य और नट पराधीन राज्य और भोजन से क्या लाभ?
प्रस्तुत ग्रन्थ देवरी (सागर) निवासी एवं बम्बई प्रवासी पं. नाथूराम प्रेमी के सत्प्रयत्नों से माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई की ओर से सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ। इसका सम्पादन पूना के विद्वान् प्रो. डॉ. पी.एल. वैद्य द्वारा लगभग 12 वर्षों की एकान्त साधना एवं कठोर श्रम के बाद तीन खण्डों में उसका प्रकाशन किया गया। प्रथम खण्ड (आदिपुराण) में 37 संधियाँ एवं 769 कडवक, द्वितीय खण्ड (अजित से नमिनिर्वाण तक) में 38 से 80 तक 42 सन्धियाँ एवं 728 कडवक तथा तृतीय खण्ड (नेमि से वीर-निर्वाण आदि तक) में 81 से 102 संधियों में 470 कडवक। इन तीनों में कुल मिलाकर भूमिका सहित (704+591+374=) 1669 पृष्ठ हैं। इनका प्रकाशन सन् 1937 से 1941 तक सम्पन्न हुआ था'।
प्रस्तत ग्रन्थ की आश्रयतदाता-प्रशस्ति बहत ही महत्त्वपूर्ण है। उसके अनसार इस ग्रन्थ की रचना कवि पृष्पदन्त ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत के आश्रय में रहकर सन् 959 में की थी। आदिपर्व के लेखन के बाद कवि किसी कारणवश कछ हतोत्साह हो गया था, किन्त सरस्वती द्वारा स्वप्नदर्शन में प्रोत्साहन पाकर उसके अगले अंश के लेखन को प्रारम्भ कर उसने उसे सन् 965 में समाप्त किया था।
1. उक्त तिसट्ठि, के हरिवंशपुराण (सन्धि सं. 81-92) को हाम्बुर्ग (जर्मनी) के प्रो. एल. आल्सडॉर्फ ने सन् 1936 में रोमन
लिपि में जर्मनी से प्रकाशित कराया था। 2. दे. तिसट्ठि . 38/2/2 3. दे. तिसट्ठि. 38/4-5
प्रस्तावना :: 25