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प्रस्तावना
" इध महाराज निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथं च महाराज निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति ! इघ महाराज निगण्ठो सव्ववारिवारितो च होति, सव्ववारियुतो च, सव्ववारिधुतो च, सव्ववारिपुट्रो च । एवं खो महाराज निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति ।"
राइस डेविस ने तथा राहुल सांकृत्यायन ने “निगण्ठो सव्ववारिवारितो होति" का अर्थ “निम्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है" यह किया है । पं० सुखलालजी ने इस अर्थ को भ्रामक बताया है। यहां वारि का अर्थ जल न होकर वार्य (वारणयोग्य कर्म ) है किन्तु उक्त पाली उद्धरण में प्रयुक्त दूसरा वारि शब्द का अर्थ वार्य नहीं, वहां वह वारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है किन्तु अगले दो स्थलों पर पुनः उसका अर्थ वार्य है । इसे ध्यान में रखने पर पूरे उद्धरण का अर्थ होगा
" महाराज निर्ग्रन्थ किस प्रकार से चारयाम रूपी संवर से संवृत होता है? महाराज वह निग्रेन्थ सर्व वाय (वारणयोग्य कर्म ) से विरत रहता है तथा सर्ववारणों से (निषेधों से) युक्त रहता है। उसके सभी वारणयोग्य कर्म धोकर अलग किए गए है तथा उसके सभी वारणयोग्य कर्मों का परिमार्जन कियागया है । इस प्रकार महाराज वह निर्ग्रन्थ चारयामरूपी संवर से संवृत होता है"। यहां जो बात सर्वप्रथम स्पष्टरूप से सामने आती है वह यह कि चातुर्याम को यहां बार बार संवर कहा गया है । संवर के अर्थ की खोज करने पर ज्ञात होता है कि आस्रव का निरोध संवर होता है तथा वह गुप्ति समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है, और चारित्र में प्रथम स्थान सामायिक का है । तात्पर्य यह है कि सामायिक का प्रतिपालन संवर में होता है महाव्रतों का नहीं । अतः महाव्रतों का विवेचन तत्वार्थ सूत्र में बन्ध के पूर्व तथा आस्त्रव के पश्चात किया गया है। इस स्थिति पर प्रकाश डालने के हेतु सर्वार्थसिद्धिकार ने एक शंका उठाई है कि " इस व्रत का आस्त्रव के हेतु में समावेश युक्त नहीं क्योंकि इसका संवर के हेतु में समावेश होता है । संवर के हेतु गुप्ति समिति आदि कहेगए हैं, वहा दस प्रकार के धर्म में या संयम में इन व्रतों का अन्तर्भाव होता है ।" इस शंका का समाधान उसी स्थान पर इस प्रकार किया गया है- “ यह कोई दोष नहीं । संवर का लक्षण निवृत्ति कहा गया हैं। किन्तु यहां प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है .... आदि ।" राजवार्तिक में भी इस स्थिति का स्पष्टीकरण इन शब्दों में है- “ व्रत संवर रूप नहीं क्योंकि इनमें परिस्पन्द प्रवृत्ति है।" उपर्युक्त इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पांच महाव्रत संवर नहीं है अतः यह कहना अनुचित न होगा कि अहिंसादि चारयाम (जिनमें पांचवां व्रत गर्भित माना जाता है ) संवर रूप नहीं । तात्पर्य यह कि यहां पापों के आधार पर नाम नहीं दिया गया किन्तु उन पापों से विरति किस प्रकार से होती थी इस पर जोर है । अब प्रश्न यह कि यदि याम संवर नहीं तो बौद्धग्रन्थ चातुर्याम को संवर क्यों कहते हैं ? यदि चाउज्जाम का अर्थ अहिंसादि चारवत होता तो बौद्धग्रन्थ इस अर्थ को इस प्रकार सर्वथा न भूल जाते । इसका समाधान यह है कि चाउजाम और पांच महाव्रतों में वस्तुतः भेद नहीं और पापों से विरति पर जोर दोनों ही देते हैं किन्तु इनमें नाम देने मात्र की दृष्टि से भेद है। पांच महाव्रतों के नाम में इस बात पर जोर है कि किन २ पापों से विरति की जाए और चाउजाम नाम में इस बात पर जोर है कि वह विरति किस २ प्रकार से की जाय । विरति दोनों में ही हिंसादि से है। अन्य भेद यदि है तो वह यह कि चाउज्जाम या सामायिक एक सर्वसंग्रहात्मक संयम था जिसमें अहिंसा अस्तेय आदि का समावेश था। इस सामायिक संयम या संवर के चार पहलू रहे होंगे जो विरति की साधना के प्रकार पर आधारित होंगे। स्थानांग में संयम को चार प्रकार का बताया भी है :
४. त. स. ९.१८ ।
१. जैनधर्म और दर्शन भाग २, पृ. १६ फुटनोट २४ । २. त. स. ९.१ । ३. त. स. ९.२ ५. त.सू ७. १ की सर्वार्थसिद्धि टीका । ६. स्था०.३८५
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