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१४, १५] अनुवाद
[३ रौद्र और प्रबल पवनने पृथिवीके उत्तम शिखररूप मेघोंको प्रचालित किया किन्तु जिनेन्द्रने अपने शरीरको उतना ही प्रचालित माना जितना कि वह चामरोंसे होता ॥१२॥
असुर द्वारा अनेक शस्त्रास्त्रोंसे पार्श्वपर प्रहार करनेका प्रयत्न जब प्रबल, भीषण और दुस्सह ध्वनिसे युक्त पवनके द्वारा (तीर्थंकर) ध्यानसे चलित न हुए तब उसने उसी क्षण चमचमाते और देखनेमें भयावने अस्त्र-शस्त्रोंको लाखों और कोटियोंकी संख्यामें हाथमें लिया। उसने शर, ज्झसर, शक्ति, सव्वल, विशाल मुदगर, मुसंदि, कराल रेवंगि, परशु, घन, कनक, चक्र आदि सब प्रज्वलित (शस्त्रास्त्र) जिनवरपर चलाये। वे कोई भी ( जिनवरके) शरीरतक नहीं पहुँचे किन्तु सभी ही मालामें परिवर्तित हो गये। कुसुम-समहसे सुरभित, सुगन्धशालिनी, गुञ्जन करते हुए अनेक भ्रमरोंकी आवास-भूमि, अत्यन्त लम्बी, शीतल और सुखकारी वे ( मालाएँ) ही जिनेन्द्र के शरीरपर गिरती थीं। वह असुर पर्वतके शिखरपर जैसे वज्र फेंक रहा हो वैसे ही दारुण और प्रचण्ड ( अस्त्र) चलाता था। आकाशसे वे धीरे-धीरे गिरते थे और उसी समय अनेक उत्तम पुष्पोंमें परिवर्तित हो जाते थे। जिस-जिस शस्त्रको वह चलाता था वह-वह एक कुसुमसमूहके रूपमें परिवर्तित हो जाता था।
जब वह असुर भट्टारक और पापके विनाशकको शस्त्रोंसे न जीत सका तब वह चिन्ताके भारसे दवकर किन्तु मानका आश्रय लिये हुए एक मुहर्तके लिए मनमें शंकित हुआ ॥१३॥
असुर द्वारा उत्पन्न की गई अप्सराओंका वर्णन आशंकाको दूर कर उसने, मनको मोहनेवाली, मनोहारिणी, पोनस्तनी, लावण्य, रूप और यौवनसे परिपूर्ण, कोकिलके समान मधुर स्वरसे समन्वित, शतपत्रके समान कोमल, रस और स्पर्शमें अनुपम, कलाओंमें पारंगत, अंजनसे किंचित् कम श्याम देहवाली, विद्रुम और नवपल्लवके समान जिह्वावाली, गोरोचन तथा पंकजके समान वर्णवाली तथा मरकत और शुकके पंखके समान आकर्षक स्त्रियोंका प्रादुर्भाव किया। कोई पंचम स्वरमें गीत आलापने लगी तथा कोई नृत्यारम्भके रहस्यका प्रदर्शन करने लगी। कोई यह कहती थी कि हे देव, मैं आपके विरहमें कृश हो गई तथा कोई आलापनी और कोई वीणा-वादन करने लगी। कोई अनुरागपूर्वक यह कहती थी कि हे देव, मैं आपके कपोलका चुम्बन करूँगी। वे ( अप्सराएँ ) नाना प्रकारसे गमनागमन करती तथा कभी गगनमें, कभी पृथ्वी तलपर और कभी सामने आकर खड़ी होती थीं। जिन सुरों और असुरोंने उनके ये भाव देखे वे विह्वल होकर विषादको प्राप्त हुए। युवतियोंकी संगतिके अभावसे दुर्बल वे पुण्यहीन स्वतःकी निन्दा करने लगे। जिसने मनुष्य भवमें तपस्या नहीं की वह इनकी संगतिसे रहित होगा ही।
जहाँ निश्चेतन तथा वेदनाका अज्ञाता वृक्ष महिलाके स्पर्शसे मुकुलित होता है वहाँ रस और स्पर्शमें आसक्त तथा अनुरक्त नर विस्मित हो मानो नष्ट होता है ॥१४॥
१५
असुर द्वारा उत्पन्न की गई अग्निकी भयंकरता जिनवरके चित्तको अविचल देख असुरने देवाङ्गनाओंके रूपका परिहार किया तथा धग-धग करती हुई एवं चारों दिशाओंमें तरुओंका दहन करती हुई अग्निका प्रदर्शन किया। उसकी सहस्रों ज्वालाओंका तेज विस्तीर्ण था तथा ( प्रतीत होता था ) मानो आकाशमें धूम्रसे व्याप्त धूम्रकेतु हो। प्रलयकालके समान उसका पिंगल वर्ण था तथा वह बड़वानलके समान जलका शोषण करती थी। वह गगनमें चिनगारियोंका समूह उचटा रही थी तथा पर्वतों और वृक्ष-शिखरोंपर अग्निका प्रसार कर रही थी। उसने सुरों, असुरों तथा मनुष्योंमें भयका संचार किया तथा पवनसे प्रेरित होकर नाशका साम्राज्य स्थापित किया । वह अग्नि
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