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टिप्पणियाँ -
[ १६३ १.२२.९. वरुणाका अशनिघोषकी पत्नीके रूपमें उत्पत्तिका कारण उसका अपने पतिके प्रति द्वेषभाव तथा मरुभूतिके प्रति स्नेहभाव था
स्वप्रिये च धृतद्वेषा स्निग्धस्नेहा च देवरे ।।
विपद्य वरुणा जज्ञे हस्तिनी तस्य हस्तिनः॥ पार्श्व. च.१.१७६. -वादिराज सूरिने कमठकी माताकी भी उत्पत्ति उसी वनमें बतलायी है। वह मर्कटीके रूपमें उत्पन्न हुई थी।
(श्री. पा. ३.५२) १.२३.२. सल्लइ (शल्लकी)-इस वृक्षके पत्ते गजोंको विशेषरूपसे प्रिय होते हैं। इसी कारणसे इसे गजप्रिया तथा
गजभक्षा भी कहा जाता है। भवभूतिने उत्तररामचरित नाटकके तीसरे अंकमें सीता द्वारा करिकलभको शल्लकीके नव अंकुर खिलानेका उल्लेख किया है । तथा पुष्पदन्तने णायकुमारचरिउ (७. २. ५)में कुंजर द्वारा
सल्लकीकी खोजका वर्णन किया है। १.२३.७. भद्दयरजाइ (भद्रतरजाति)-यह हाथियोंकी उत्कृष्ट जाति है। इस जातिके हाथीके लक्षण इस प्रकार हैं
मधु-गुलिय पिंगलक्खो अणुपुन्व-सुजाय-दीह-णंगूलो ।
___पुरो उदग्ग-धीरो सव्वंग-समाहिओ भद्दो ।। स्था. ४.२.३४५. १.२३.८. परिहव (परिभव )-राहमें आये हुए विघ्न और बाधाओंसे तात्पर्य है। १.२३.१० पउम (पद्म )-प्रस्तुत काव्यके कर्ताका नाम पउमकत्ति (पद्मकीर्ति) है। इस शब्दके द्वारा कवि इसी
तथ्यकी ओर संकेत कर रहा है । यह शब्द प्रत्येक संधिके अन्तिम पत्ते में प्रयुक्त हुआ है। दूसरी सन्धि २. १. ४ चाणक्य और भरतसे तात्पर्य उनके ग्रन्थ अर्थशास्त्र और नाट्यशास्त्रसे है । २.३.४ जोह पउमावतार-पउम ( पद्म ) श्री रामचन्द्रका जैनों-द्वारा अपनाया गया नाम है। अतः इस उक्तिका अर्थ
'योधा, जो रामके अवतार थे' हुआ। चूँकि यह तथ्य संगत नहीं है अतः यहाँ उत्प्रेक्षाकी कल्पना करना आव
श्यक है, तब अर्थ यह होगा--योधा, जो मानों रामचन्द्रके अवतार थे। २.३.४ गिट्ठाम समागिय का अर्थ सन्दिग्ध है। णिहाम का अर्थ निष्ठायुक्त या भक्तिपूर्ण तथा समाणिय का सामानिक
अपने समान बन्धु-बान्धव प्रतीत होता है। २. ४. ७. वेहीवसेण (विधिवशेन)-मात्रापूर्तिके लिए इ को ए में परिवर्तित करनेकी प्रवृत्ति प्रस्तुत काव्यमें जब कब
दिखाई देती है। इस सम्बन्धमें भूमिकाका व्याकरण सम्बन्धी भाग देखिए। २. ५. ५. भूण-दीण (भ्रूण दीन)-गर्भस्थ बालकको भ्रूण कहते हैं-भ्रूणोऽर्भके स्त्रैणगर्भे-अ. को. ३.४.१०४८ गर्भस्थ
बालकके समान दीनसे तात्पर्य सर्वथा दूसरेपर अवलम्बितसे है। २.५.८. यहाँ मोक्षके सम्बन्धमें आस्तिक-नास्तिक मतोंके उल्लेख द्वारा मन्त्री राजाके मनसे उसके आग्रहको दूर करनेका
प्रयत्न करते हैं। २. ६. १०. चउगइगईहि-ऐसे द्विरुक्त पद अनेक आते हैं जैसे जम्बू दीवदीव, गयउरपुर आदि। इनमें प्रथम पदको व्यक्ति
वाचक संज्ञाका भाग समझना चाहिए। २. ८.६. घरूघर-प्रथम घरुमें उ को मात्राको छन्दकी आवश्यकतासे दीर्घ किया गया है। चूंकि देसे देसु (१.१३.१२)
करे करु (८.१६.४) आदिमें प्रथम पदके ह्रस्वके स्थानमें दीर्घ स्वर रखा गया है अतः यह एक प्रवृत्तिका द्योतक है, जिसके अनुसार अनेकताका बोध करानेके लिए दुहराये गये दो पदोंमेंसे प्रथमके अन्तिम स्वरको दीर्घ
किया जाता है। २.८. ८. णाणा "लेवि -जीव अमूर्त और स्वतन्त्र है, किन्तु वह कषायवश विचलित होकर कर्म-पुद्गलोंका ग्रहण करता है और उसी कर्मबन्धके फलस्वरूप संसारमें भटकता रहता है । इसी आशयकी यह गाथा है
संसार-चक्क-वालम्मि मए सव्वेपि पुग्गला बहुशः । आहरिया य परिणमिदा य ण मे गदा तित्ती ।।
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