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पार्श्वनाथचरित (देखिए उ. पु. ७३.७५. तथा श्री. पा. ९.९५.)। ८. २. ७. तिहिं णाणहि (त्रिभिः ज्ञानैः)-तीर्थोंकरोंको मति, श्रुति तथा अवधिज्ञान जन्मसे ही प्राप्त रहते हैं। यह कल्पसूत्र (३०) से स्पष्ट है
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तिन्नागोवगए आवि हुत्था। ८.३. १. तीर्थंकरके गर्भावतरणके छह माह पहिले इन्द्रका आसन हिलता है जिससे इन्द्रको तीर्थकरके भावी गर्भावतरण
की सूचना मिलती है। तब वह कुबेरको बुलाकर उसे जिस नगरमें तीर्थकरका जन्म होनेवाला होता है उस नगरमें रत्नवृष्टि करनेकी आज्ञा देता है। यह रत्नवृष्टि पन्द्रह माह तक होती रहती है। सभी पुराण-ग्रन्थोंमें इसका वर्णन है
पाडेइ रयणवुढि घणओ मासाणि पगणरस ।-प. च. ३.६७ रत्नवृष्टिं धनाधीशो मासान् पञ्चदशाहतः।-पद्म.३.१५५ षडभिर्भासैरथैतस्मिन्स्वर्गादवतरिस्यति । रत्नवृष्टिं दिवो देवाः पातायामासुरादरात् ॥-आ. पु. १२.८४
पश्चाच्च नवमासेषु वसुधारा तथा मता। आ. पु. १२.६७ किन्तु कल्पसूत्र (८८) में केवल इस बातका उल्लेख है कि तीर्थकर महावीरके गर्भावतरणके पश्चात इन्द्रकी आज्ञासे तिर्यग् जृम्भकदेव उन पुरानी निधियोंको सिद्धार्थके भवनमें लाते हैं जो ग्राम, चतुष्क, राजमार्ग आदि
स्थानोंमें थीं। ८.४.६ सुरगणीउ-देवांगनाओंसे आशय है। तीर्थकरके गर्भावतरणके छह माह पूर्व इन्द्रकी आज्ञासे तीर्थकरकी माता
की सेवाके लिए सोलह देवियोंके आनेका यहाँ उल्लेख है। पउमचरिय तथा पद्मचरितमें इन देवियोंकी संख्याका निर्देश नहीं है, केवल उन देवियोंके तीन-चार नाम दिए हैं। त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरितमें इन्द्र द्वारा ५६ दिक्कु
मारियोंके भेजे जानेका वर्णन है, किन्तु कल्पसूत्रमें इस सम्बन्धमें कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। ८. ५. १० वरसुइणावलि (वरस्वप्नावलि) तीर्थंकरके गर्भावतरणके समय तीर्थंकरकी माता सोलह स्वप्न देखती है (देखिए
आ. पु. १२.१०३) । इनका ही निर्देश यहाँ वरसुइणावलिसे किया गया है। अगले कडवकमें उन सोलह स्वप्नोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। भगवती सूत्र (५७७), कल्पसूत्र (३१), तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थोंमें तीर्थंकरको माता-द्वारा चौदह स्वप्न देखनेका वर्णन है। इन ग्रन्थोंमें तीर्थंकर माता-द्वारा स्वप्नमें सिंहासन तथा नागालय देखे जानेका वर्णन नहीं है जो कि आदिपुराणमें पाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थमें आदिपुराणका अनुसरण कर आठवें स्वप्नमें झष (मछली) दिखायी देनेका वर्णन है जबकि क. सू. (४०), त्रि. च आदि ग्रन्थोंमें आठवें स्वप्नमें झय (पताका) का। एक मतके अनुसार भिन्न-भिन्न तीर्थंकरोंकी माताएँ उक्त स्वप्नोंको भिन्न क्रमसे देखती हैं । उदाहरणार्थ ऋषभदेवकी माताने पहिले स्वप्नमें वृषभ देखा था ( देखिए प. च. ३.६२ तथा आ. पु. १४. १६२) तथा महावीरकी माताने प्रथम स्वप्नमें सिंह देखा था देखिए क. सू. ३३ की सुबोधिका वृत्ति नामक टीका)। –जाम चउत्थइ (चतुर्थयामे)-चौथे याममें देखे गए स्वप्न फलप्रद होते हैं
निशाऽन्त्यघटिकायुग्मे दशाहात्फलति ध्रुवम् ।। ८.६.६,७ यहाँ छठवें स्वप्नमें चन्द्र तथा सातवें स्वप्नमें रविको देखनेका वर्णन है जो क.सू. (३८,३९) पउमचरिय
(३. ६२) तथा आ. पु. ( १२. १०९, ११०) के अनुसार है। कन्तु पद्म. च (२. १२९, १३०) में पहिले रवि और
तत्पश्चात् चन्द्र के स्वप्नमें दिखाई देनेका वर्णन है। ८.६.१० णलिणायर हेमवरण (नलिनाकरः हेमवर्णः)-पद्मकीर्तिने यहाँ स्वप्नमें हेमवर्ण कमल देखे जानेका वर्णन किया
है। अन्य सभी ग्रन्थोंमें स्वप्नमें कमलयुक्त सरोवरके देखे जानेका उल्लेख है। (देखिए. क. सू. ४२ तथा. आ.
पु. १२. ११३)। ८. ७. १. इस कडवकमें वामादेवी द्वारा स्वप्न देखनेके पश्चात् भिन्न-वाद्योंकी ध्वनि सुननेका वर्णन है। स्पष्ट है कि ये
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