Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 537
________________ २३२] पार्श्वनाथचरित चन्द्रमाके ६६९७५ (छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर) कोड़ाकोड़ी तारे, ८८ महाग्रह तथा २८ नक्षत्र होते हैं (ति०प०७.२५, १४,३१)। १६. १७. १ लोकाकाशको घेरे हुए पहले घनोदधिवात है, तदनन्तर घनवात और अन्तमें तनुवात है। १६. १७.३,४ लोकके तलभागमें एक राजुकी ऊँचाई तक तीनों वातवलयों में से प्रत्येककी मोटाई २० हजार योजनप्रमाण है। उसके बाद उनकी मोटाई ऊपर-ऊपरकी ओर क्रमशः कम-कम होती गई है। लोकशिखरपर घनोदधिवातकी मोटाई दो कोस, घनवातकी एक कोस तथा तनुवातकी एक कोसमें ४२५ धनुष कम अर्थात् १५७५ धनुष है। सत्रहवीं संधि १७. १. ४ दुवीहु धम्मु-परिग्रहसहित श्रावकके सागार धर्म तथा परिग्रहरहित मुनिके अनगार धर्मसे आशय है । १७. ३. ४ तिसहिपुरिस (त्रिषष्ठिपुरुष)-२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, हबलभद्र, ९ नारायण तथा९ प्रतिनारायण मिल कर त्रिषष्ठि शलाकापुरुष कहे जाते हैं। १७.३.५ कुलकर-आदि तीर्थकर ऋषभदेवके पूर्व १४ युगपुरुष हुए थे जिन्होंने मनुष्योंको भिन्न-भिन्न शिक्षाएँ प्रदान की तथा उनके भय आदिका शमन किया। वे सब कुलोंके भरण करनेसे कुलधर नामसे कुलोंके करने में कुशल होनेसे कुलकर नामसे लोकमें प्रसिद्ध हैं (ति प ४.५०९)। उनके नाम इस प्रकार हैं-प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, 'चक्षुष्मान, यशस्वो,"अभिचन्द्र, "चन्द्राभ, "मरुदेव, "प्रसेनजित्, तथा नाभिराय। -दसभेयकप्पवरतरुवर-( दशभेधकल्पतरुवराः)-कल्पवृक्षोंके दस भेदोंके नाम हैं-'पानांग, सूर्याग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग, तथा तेजांग,। ये क्रमशः पेय, वाद्य, भूषण, "वस्त्र, भोजन, भवन, दीपकके सनान प्रकाश, कलश आदि पात्र, 'माला, तथा १ सूर्य-चन्द्रके समान प्रकाश प्रदान करते हैं। १७. ४.८ जुवल (युगल) सुषमासुषमा कालमें मनुष्य और तिर्यञ्चों की नौ माह आयु शेष रह जानेपर उनके गर्भ रहता है और मृत्युका समय आनेपर उनके एक बालक और एक बालिका जन्म लेते हैं। ये ही युगल कहलाते हैं। यह युगल तीन दिनके बाद रेंगने लगता है, उसके तीन दिन बाद चलने लगता है, उसके तीन दिन बाद उसका मन स्थिर हो जाता है तथा उसके तीन दिन बाद वह यौवनको प्राप्त हो जाता है (ति. प. ४.३७५, ३७९, ३८०)। १७.६.३ छिकिय-ति. प. (४.३७७) के अनुसार सुषमासुषमा कालके पुरुष छींकसे तथा स्त्री जिंभाईके आनेसे मृत्युको प्राप्त होते हैं । सुषमा तथा सुषमादुषमा कालमें भी मनुष्य-स्त्री उक्त प्रकारसे ही प्राण-विसर्जन करते हैं। १७.६.४ उप्पजहि....."होइ-सुषमासुषमा, सुषमा तथा सुषमादुषमा कालमें उत्पन्न तथा भोगभूमियोंमें उत्पन्न मनुष्य यदि सम्यग्दृष्टि हुए तो सौधर्म कल्पमें उत्पन्न होते हैं । उस कल्पमें देवोंकी आयु दो पल्यसे लगाकर दो सागरोपम तक होती है। यदि वे मनुष्य मिथ्यादृष्टि हुए तो भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्कदेवोंमें उत्पन्न होते हैं (ति.प. ४.३७८)। १७.६.५ खिरोए...."खिवंति–ति. प. (४.३७७) के अनुसार सुषमासुषमा आदि तीनों कालों में तथा भोग-भूमियों में जो युगल मृत्युको प्राप्त होते हैं उनके शरीर शरद्कालीन मेघके समान आमूल विलीन हो जाते हैं। मृत्युके पश्चात् उनके शरीरोंका व्यंतरों द्वारा क्षीरोदधिमें फेके जानेका वहाँ उल्लेख नहीं है। १७. ६.७ वडूंतु अणुहवंति-अवसर्पिणी कालका अन्त होनेपर उत्सर्पिणी काल आता है जिसमें आयु, उत्सेध आदि क्रमशः बढ़ने लगते हैं। १७.७.६ उप्पराण......."देव-आदि तीर्थंकर ऋषभदेव सुषमा-दुषमा कालमें तथा शेष तेईस दुषमासुषमा कालमें उत्पन्न हुए थे। १७.७.७ कामदेव-चौबीस तीर्थकरोंके समयोंमें अनुपम आकृतिके धारक बाहुबलि प्रमुख चौबीस कामदेव होते हैं। इनका समावेश त्रेसठ शलाका पुरुषों में नहीं होता जैसा कि संदर्भसे प्रतीत होता है। १७. ७.९ एयारह वि रुद्द-रुद्रोंकी संख्या ग्यारह है । उनके नाम इस प्रकार हैं भीमवलि, जितशत्रु, रुद्र, वैश्वानर, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितधर, अजितनाभि, पीठ तथा सात्यकि पुत्र । ये सब रुद्र अंगधर होते हैं। वे सब दसवें पूर्वका अध्ययन करते समय, तपसे भ्रष्ट होकर घोर नरकोंको प्राप्त होते हैं। १७ ८.२ गय....."जाम-दुषमा नामक पाचवाँ काल २१ (इकबीस) हजार वर्ष प्रमाण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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