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पार्श्वनाथचरित १६. ८. १०-व्यन्तरोंकी जघन्य आयु दस हजार वर्ष प्रमाण तथा उत्कृष्ट आयु एक पल्य प्रमाण है ( ति. प. ६. ८३)। १६.९. ३. सायरकुमार (सागरकुमार )- यह भवनवासी देवोंका एक भेद है। छठवीं पंक्तिमें इन देवोंके एक अन्य भेद
का नाम उअहिकुमार ( उदिध कुमार ) दिया है। दोनों एक ही भेदके दो नाम प्रतीत होते हैं किन्तु दोनोंको अलग-अलग माननेपर ही भवनवासियोंके दस भेद सिद्ध होंगे जो कि त. सू., ति. प. आदि ग्रन्थोंमें बताए गए हैं । भवनवासी देवोंके जिन भेदोंको यहाँ सायरकुमार तथा भोमकुमार नाम दिया है उन्हें त. सू. (४. १०)
में स्तनितकुमार तथा द्वीपकुमार कहा है। १६.९.१०. पायालणिवासिय-भवनवासी देवों का निवास स्थान रत्नप्रभा पृथिवीके खर तथा पङ्कबहुल भागोंमें है । १६. ९. ११ बाहत्तरिलक्ख'कीडिउ सत्त-असुरादि भवनवासि देवोंके भवनोंकी संख्या इस प्रकार हैदेवों का नाम
भवनों की संख्या १. असुरकुमार
६४ लाख २. नागकुमार
८४ लाख ३. सुपर्णकुमार ४. द्वीपकुमार ५. उदधिकुमार ६. स्तनितकुमार ७. विद्युत्कुमार ८. दिक्कुमार ९. अग्निकुमार
१०. वायुकुमार भवनोंकी कुल संख्या सात करोड बहत्तर लाख है।
७७२, १६. १०.७ चउतीसखेत्त-मेरुपर्वतके उत्तरमें उत्तर कुरु, दक्षिणमें देवकुरु, पूर्व में पूर्व विदेह जो सोलह विजयोंमें विभक्त है
तथा पश्चिममें पश्चिमविदेह है जिसके भी सोलह विजय हैं। इस प्रकार मेरुके आसपास चौंतीस क्षेत्र हैं।
विजयोंके नामोंके लिए १६. १२.२ पर दी गई टिप्पणी देखिए। १६. १०.९ छहि खंडहि-वैताढ्य पर्वत तथा गङ्गा एवं सिन्धु नदियोंके द्वारा भरतक्षेत्र छह भागोंमें विभक्त है। १६. ११.३. हिमवंतु महापयंडु-महाहिमवान् पर्वतसे आशय है।। १६. ११. ८ पोएमवरिसु-नीलगिरिके उत्तरमें जो क्षेत्र स्थित है उसका नाम त. सू (३. १०) तथा ति. प. (४.९१) के
अनुसार रम्यक क्षेत्र है। इस क्षेत्रके मध्यमें पद्म, पउम या पोएम नामका पर्वत है ( देखिए. ति. प. ४. २३३६)।
इस कारणसे कविने उस क्षेत्रको भी पोएम नाम दिया है। १६.११.१४-अवसप्पिणि तथा उवसप्पिणिके लिए सत्रहवीं सन्धिका चौथा कडवक देखिए। १६. १२. २. एककेक्कहिं सोलह विजय-पूर्व विदेह के मध्यमें सीता नदी बहती है। उसके उत्तरमें कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ,
कच्छकावत् आवर्त लाङ्गलावर्त, "पुष्कल तथा पुष्कलावर्त तथा दक्षिणमें वत्सा, "सुवत्सा "महावत्सा "वत्सवत्, रम्य, रम्यक, "रमणीय तथा ' मंगलावती नामके विजय हैं। पश्चिम विदेहके मध्यमें सीतोदा नदी बहती है । उसके उत्तर में 'वप्र, सुवप्र, महावप्र वप्रावत् , "वल्गु, 'सुवल्गु, गन्धिल तथा 'गन्धिमालि तथा दक्षिणमें 'पद्म 'सुपद्म,"महापद्म,'२पद्मवत,"शङ्ख, "नलिन, कुमुद तथा “सरित नामक विजय हैं। ये
विजय वसार पर्वतों तथा विभङ्ग नदियों-द्वारा एक दूसरे विभक्त हैं। १६.१२.३ तहि विहिमि सुसमु-यहाँ यह कथन किया गया है कि पूर्व विदेह क्षेत्रों में सुषमाकाल प्रवर्तमान रहता है। यह
संशयास्पद है। इन दोनों क्षेत्रों में दुषमासुषमा काल प्रवर्तता है जैसा कि अगले वर्णनसे ही स्पष्ट है । १६.१३.२ दह (हृद)-हिमवान आदि छह वर्षधर पर्वतोंपर क्रमशः 'पद्म, 'महापद्म, तिगिन्छ, केसरि, महापुण्डरीक
तथा पुंडरीक नामक हृद वर्तमान हैं (त. सू. ३.१४)। उन हदोंमेंसे प्रथम एक हजार योजन लम्बा, पाँच-सौ योजन चोड़ा तथा दस योजन गहरा है (त.सू. ३.१५,१६) आगे-आगेके हृदोको लम्बाई, चौड़ाई तथा गहराई पूर्व-पूर्वके हृदोंसे दुगुनी-दुगुनी होती गयी है (त. सू.३.१८)
ल्गु
, सुवल्गु, T
पभ, पद्मवत, '
श
वसार पर्वतों
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