________________
२२६ ]
पार्श्वनाथचरित
प्रकारका ब्रह्मचर्य है
जो कय कारिय मोयण मणवयकायेण मेहुणं चयदि । पवारूढ़ो भवई सो हवे सदओ ॥ का. अ. १८४. - दहविहुधम्मु - १३.३. ७ पर दी गई टिप्पणी देखिए ।
१४.३०.७ एयारह विअंग — श्रुताङ्गोंकी संख्या बारह है किन्तु दृष्टिवाद नामक श्रुताङ्ग लुप्त हो गया है अतः यहाँ ग्यारह अङ्गों
काही उल्लेख किया गया है।
- बारहविहु तपचरणु — छह अभ्यन्तर तथा छह बाह्यतपोंसे आशय है । इनके नामादिके लिए ३.१.६ पर दी गई दिप्पणी देखिए !
१४.३०.८ तेरह भेयहिं चरणु-चरणसे आशय क्रियासे है जिसके पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ तथा तीन गुप्तियाँ इस
प्रकार तेरह भेद हैं।
- चउदहमइ गुणठाणि ( चतुर्दशमे गुणस्थाने ) - चौदहवाँ गुण स्थान अयोगकेवलि है ।
१४.३०.९ परणारह पमाय ( पञ्चदश प्रमादा: ) - १६१ पर दी गई टिप्पणी देखिए ।
—– सोलह कसाय - आत्माके विभाव परिणामोंको कषाय कहते हैं । क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषायके मुख्य भेद हैं। इनमें से प्रत्येकके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन ये चारभेद हैं । इस प्रकार कषायके कुल सोलह भेद हुए ।
१४.३०.१० सत्रहविहे संजमे ( सप्तदशविधे संयमे ) – मूलाचार में संयमके सत्रह भेदोंको इस प्रकार बताया है— पुढविदगतेउवाउवणफदीसंजमो य बोधव्वो । विगतिगचदुपंचेंदिय जीवकायेसु संजमणं ॥
पडिलेहं दुप्पडिलेह मुवेखवहद्दु संजमो चेव । मणवयकायसंजम सत्तरसविधो दुणादव्व ॥ - मू. आ. २१६.२२० अन्यत्र संयम के ये सत्रह भेद बताये हैंपञ्चास्रवाद्विरमणं पञ्चन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥
पन्द्रहवीं संधि
१५. १. ६—–गयगोउरु ( गतगोपुरम् ) – गवानां इन्द्रियाणां पुरं समूहं गोपुरम् । गतं गोपुरं यस्य यस्माद् वा गतगोपुरम् । यह केवलज्ञानका विशेषण है ।
१५' १. १२ ति. प. ( ४.७०० ) के अनुसार पार्श्वनाथको केवलज्ञानकी उत्पत्ति चैत्रकृष्णा चतुर्दशी के पूर्वाह्न कालमें विशाखा
नक्षत्र के रहते हुए शक्रपुर में हुई थी।
१५. ७. १ समवसरणु-तीर्थङ्करोंके समवसरणकी रचना सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे कुबेर द्वारा की जाती हैं ( ति प ४. ७१० ) । भिन्न-भिन्न तीर्थङ्करोंके समवसरणोंको भूमिका विस्तार भिन्न-भिन्न होता है। पार्श्वनाथके समवसरणकी भूमिका विस्तार योजनके चतुर्थ भागसे कम था ( ति प ४. ७१७ ) । प्रत्येक समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ तथा इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर्भाग में तीन पीठ होते हैं ।
१५. ७. २ गोउर चयारि - पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इन चार दिशाओंमें चार गोपुर होते हैं तथा उनके नाम क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित होते हैं ।
—णंदणवण (नन्दूनवनानि ) ति. प. के अनुसार समवसरणकी उपवन-भूमिमें चार वन होते हैं जिनके नाम अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन तथा आम्रवन हैं ।
Jain Education International
-वापि ( वापयः ) — ति. प. के अनुसार प्रत्येक वनमें वापिकाएँ होतीं हैं किन्तु उनकी संख्याका निर्देश वहाँ प्राप्त नहीं है।
१५. ७. ३ माणथम्भ (मानस्तम्भ ) - समवसरणमें तीनों कोटोंके बाहिर चारों दिशाओं में तथा पीठोंके ऊपर मानस्तम्भ होते हैं । चूंकि दूरसे इन स्तम्भोंको देखनेसे मानसे युक्त मिध्यादृष्टि मनुष्य अभिमानसे रहित हो जाते हैं इसलिए
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org