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टिप्पणियाँ
[२२५ १४. ६. ५ विहंगु णाणु (विभङ्गज्ञानम् )-यह तीन कुज्ञानोंमें से एक कुज्ञान है। बाकी दोके नाम कुमति तथा कुश्रुत हैं।
विपरीत अवधिज्ञानको विभङ्गज्ञान कहते हैं-मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च-त.सू. १. ३१. १४. ८.२ आढत्त.... फलेण-पंक्तिका अर्थ सुस्पष्ट नहीं है। तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि स्वबुद्धिसे जो कार्य किया
जाये उसमें अनुरूप फलकी प्राप्ति नहीं होती। १४.८.११ वित्तउ-इसका अर्थ विख्यात, लम्बा या दीर्घ किया जा सकता है। तदनुसार 'बालरेणु जंवित्त उ' का अर्थ
'जो विख्यात बालरेणु है' या 'जो बालरेणुके बराबर लम्बा या आकारका है' होगा। पूरी पंक्तिका तात्पर्य
यह है कि तू पार्श्वनाथका बाल भी बाँका करनेमें समर्थ नहीं। १४.९.१० इस पंक्तिका अन्वय इस प्रकार है-(जो वसणपडिए विजउ सो सुहि बांधव ) यहाँ विजउका अर्थ द्वितीयभूतः
तिष्ठति अर्थात् सहायक करना आवश्यक है। इस पंक्तिका अर्थ इस प्रसिद्ध सूक्तिके समान है-'राजद्वारे
श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।' १४. १२. ८ धनवात, घनोदधि तथा तनुवात ये तीनों वायुये लोकाकाशको वेष्टित किये हुए हैं। इस सम्बन्धमें १६. १७. ३,
४ पर दी गयी टिप्पणी देखिए। १४.१८.४ कुभण्ड तथा वाण ये व्यन्तरवासी देवोंके प्रकार हैं। १४. २४. ६,७,८ इन पंक्तियोंमें कविने फणिराजके आसनके कम्पित होनेका वर्णन पाँच उपमाएँ देकर किया है। इन
उपमाओं में साधारण धर्म 'चलिउ' (कम्पित) है। चूँ कि यह साधारण धर्म सब उपमानोंके साथ पूर्णतः उपयुक्त नहीं है अतः उन उपमाओंकी सार्थकता पूर्णतः स्पष्ट नहीं है और इस कारणसे इन पक्तियोंका अर्थ भी सन्दिग्ध है। प्रथम चार उपमानोंके सम्बन्धमें उस साधारण धर्मका अर्थ 'भयसे काँपना' किया जा सकता है
तथा अन्तिमके सम्बन्धमें उसका अर्थ 'अधरादिका कम्पन' होगा। (अनुवाद देखिए) १४. २५. ४ जणवज्जणविलासु (जनवर्जनविलासम्)-यह 'पंक'का विशेषण है। इसका अर्थ 'मनुष्योंको दूर रखना ही
जिसका विलास है' या 'मनुष्योंसे रहित (स्थानमें) जिसका विलास है' किया जा सकता है। विलास शब्दका
सम्बन्ध यदि सीधा जनसे जोड़ा जाये तो अर्थ होगा-जो जनोंके विलाससे रहित था। १४. २६.५ आसीविसु--(आशीविषः)-यहाँ इसका मूलार्थ-जिसके दाँतोंमें विष है-ग्रहणकर उसे अगली पंक्तिमें प्रयुक्त
अहिशब्दका विशेषण मानना चाहिए अन्यथा आसीविसु तथा अहि इन दो समानार्थी शब्दोंके एक साथ एक ही कर्ताके रूपमें प्रयुक्त किये जानेकी स्थिति उत्पन्न होती है। उस अवस्थामें छठवीं पंक्तिके अहि तथा फणहिको
एक सामासिक शब्दके रूपमें ग्रहण करना आवश्यक होगा। १४. २७.२ जेम'"अवत्थु–'अग्नि देवानां मुखम्- अग्नि ही देवताओंका मुख है अतः अग्निमें डाली गयी हवि ही
देवताओंको अंगीकार होती है, अन्यत्र डाली हुई नहीं। इस कारणसे जलमें डाली गई हवि देवताओंके लिए
निरर्थक है और उसका फल हवि देने वालेको प्राप्त नहीं होता। १४.२८.६ गयणरुधु (गगनरुद्धम् )-गगनं रुद्धं येन तत् यह विसहरविसदसह' का विशेषण है । पंक्तिका तात्पर्य यह है कि सर्प
का दुस्सह विष आसपासके स्थानमें फैल गया अतः असुर कुछ समयके लिए दूर जाकर खड़ा रहा। १४.२८.१० पउमावइ (पद्मावती)-पार्श्वनाथकी शासन देवीका नाम है। पद्मावतीका वर्ण स्वर्णके समान है। उसके
चार हाथ हैं जिनमेंसे दाहिने दो हाथोंमें पद्म तथा पाश हैं तथा बाएँ दो हाथों में फल और अंकुश हैं।
पद्मावतीका वाहन सर्प है। १४.३०.३ दंड-मन, वचन तथा कायकी अशुभ प्रवृत्तियोंको दण्ड कहा जाता है।
-चउविहकम्मई (चतुर्विधकर्माणि)-यहाँ चार घाती कर्मोंसे आशय है। उनके नाम, ज्ञानावरणीय, दर्शना
वरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय हैं। १४.३०.५ अट्ट दुट्ट कम्मारि-आठकोंसे आशय चार घाती तथा चार अघाती कर्मोंसे है। अघाती कर्मोके नाम ये हैं
आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय । १४.३०.६ रावविहु बंभचेरु (नवविधं ब्रह्मचर्यम् )-मन, वचन तथा कायसे कृत, कारित तथा अनुमोदित मैथुन-त्याग नौ
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