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टिप्पणियाँ
ग्रीष्मेऽस्तमिते वसन्तसमये भानौ गते दृश्यत्तां सूर्ये चास्तमुपागते भगवति प्रावृछरत्कालयोः ॥ - भागिल वि. मा. ८.४९ की मुहूर्त दीपिका टीका
१३- ११ - इस कडवकमें वर्णित घटनाका वर्णन उ. पु. में भी किया गया है किन्तु उ. पु. के अनुसार यह घटना पार्श्वनाथकी आयुके सोलहवें वर्ष में हुई थी न कि तीस वर्ष पूरे होनेपर जैसा कि प्रस्तुत ग्रन्थमें बताया गया है । उ. पु. के अनुसार जिस तापसके पास पार्श्वनाथ पहुँचे थे वह पार्श्वनाथकी माताका पिता था ।
१३.१२.६ उ. पु. के अनुसार इस घटना के पश्चात् पार्श्वनाथको वैराग्यभावका उदय नहीं हुआ था । उन्हें वैराग्यभाव इस घटना चौदह वर्ष बाद साकेतसे आए हुए दूत द्वारा किए गए ऋषभदेवका वर्णन सुनकर उत्पन्न हुआ था (उ. पु. ७३.१२४ ) ।
१३.१३.१ लोयंतिय ( लौकान्तिक ) – ये देव ब्रह्मलोकके अन्त में निवास करते हैं। चूँ कि ये देव संसार - समुद्र रूपी लोकके अन्त में निवास करते हैं अतः वे लौकान्तिक इस सार्थक नामसे युक्त हैं। इन देवोंकी संख्या चौबीस हैब्रह्मलोकान्तालयाश्चतुर्विंशति लौकान्तिकाः - शा. स. । भक्तिमें प्रसक्त, सर्वकाल स्वाध्यायमें रत, एक ही मनुष्य जन्म लेकर मोक्षको जानेवाले तथा अनेक क्लेशोंसे रहित ये सब देव तीर्थंकरोंकी दीक्षा समय जाते हैं - ( ति. प.८.६४४ ) ।
१३. १३.८ इस पंक्तिसे लेकर अगले कड़वककी तीसरी पंक्ति तक दीक्षा कल्याणका वर्णन है जो सर्वथा परंपरागत है । तीर्थंकर द्वारा दीक्षा लेनेके समय समस्त देव तथा भूचर एकत्रित होते हैं और उत्सव मनाते हैं । उनके द्वारा एक सुन्दर पालकी में तीर्थंकर देवको विराजमान किया जाता है । उस पालकीको पहिले भूचर कुछ दूर ले जाते
तदनन्तर विद्याधर और अन्त में देव उस पालकीको लेकर आकाश में चलते हैं। नगरसे बाहिर किसी उपवन में जिनभगवान् एक वृक्षके नीचे किसी शिलापर बैठकर आभूषण तथा वस्त्र उतारकर अलग करते हैं फिर पाँच मुकेशलोंच करते हैं, तदनन्तर सिद्धों को नमस्कार कर ध्यान मग्न हो जाते हैं। जिनभगवान् द्वारा जिन केशों का लोंच किया जाता है उन्हें इन्द्र क्षीरोदधिमें विसर्जित करता है ( आ. पु. १७.२०९ ) ।
१३.१४.४ णरवरोंसे आशय राजकुमारोंसे है । ति प ( ४.६६८ ) में पार्श्वनाथके साथ तीन सौ राजकुमारोंके दीक्षित होने
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का उल्लेख है। I
१३.१४.५ ट्ठोपवासु — दीक्षाके पश्चात् पार्श्वनाथ द्वारा किए गए उपवासोंकी संख्या के बारेमें मतभेद है । ति. प. के अनुसार पार्श्वनाथने षष्ठ आहार ग्रहण किया था। इसके अनुसार ख प्रतिका पाठ सही प्रतीत होता है । किन्तु आवश्यक नियुक्ति ( २५० ) में पार्श्व द्वारा अष्टम् भक्त ग्रहण करनेका उल्लेख है । मलयगिरि टीकामें अष्टम भक्तका अर्थ तीन उपवास किया है । पुष्पदंतने भी पार्श्व द्वारा आठवाँ भक्त ग्रहण करनेका उल्लेख किया है ( म. पु. ९४.२२.१३ ) १३.१४.६ गउ''गेहु — उत्तरपुराण ( ७३.१३२,१३३ ) के अनुसार पार्श्वनाथ पारणाके दिन आहार ग्रहण करनेके लिए
गुल्मखेट नगर में गए। वहाँ धन्य नामक राजाने उन्हें आहार दिया ।
१३.१४.११ट्ठमय (अष्टमद ) - कुलमद, जातिमद, रूपमद, ज्ञानमद, धनमद, बलमंद, तपमद, तथा अधिकारमद ये आठ मद हैं
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमा हुर्गतस्मयाः ॥ र. श्री. २५
स्थानांगमें आठ भेदोंके नाम इस प्रकार दिए हैं-जाइमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुयमए, लाभमए । इस्सरियम - (स्था ७६८ ) ।
१३.१४.१२सत्तभय ( सप्रुभय ) - इहलोकभय, परलोकभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, व्याधिभय तथा आगन्तुकभय ये सात भय हैं । स्थानांगमें इन्हें इसप्रकार बताया है - इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकमहाभए, वेणभए, मरणभए, असिलोगभए - ( स्था. ६७२ ) ।
चौदहवीं सन्धि
१४.१.५ चउसण्ण ( चतुरसंज्ञा ) - अभिलाषा या वाच्छाको संज्ञा कहा जाता है। संज्ञाके आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह ये चार भेद हैं ।
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