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पार्श्वनाथचरित
१४.२.१ धव धम्मण – दोनों जंगली वृक्षोंके नाम है। इनकी केवल लकड़ी काममें आती है। बुंदेलीमें इन्हें धौ तथा धामन कहते हैं ।
१४. २.२ जासवणसुन्द — यह एक ही वृक्षका नाम प्रतीत होता है। मराठीमें इसे जासुंदी तथा हिन्दी में जासौन कहते हैं । १४. २. ३ कुंकुम - एक विशालवृक्ष जिसकी छाया हर समय घनी बनी रहती है जैसा कि 'तिसंझ घणबहलछाय' से स्पष्ट है। १४. २.४ कंचन - दक्षिण भारतमें आज भी इसे कञ्चनवृक्ष कहते है । हिन्दीमें यह सिरहटा कहलाता है (बृ. वि. १६२ ) । —तरव—दे. मा. ( ५.५ ) में तरवट्टो नामक वृक्षका उल्लेख है । सम्भव यह तरव वही वृक्ष हो ।
—कंदोह - दे. मा. (२.९ ) के अनुसार इस शब्दका अर्थ नीलकमल होता है । यह अर्थ वन वर्णनके संदर्भ में कुछ असंगत है । सम्भव है इस नामका कोई वृक्ष भी हो ।
- तिमिर -- दे. मा. (५.११ ) के अनुसार इसका अर्थ 'तिरिडो' है। हिन्दीमें तिरोडा कहलाता है । पुंडच्छ ( पुंड्रबृक्ष ) – पुंड्र एक प्रकारकी ईख होता है बुंदेलीमें इसे पौंडा कहते हैं ।
१४. २. ५
१४. २. ६ इंदोक्ख ( इन्द्रवृक्ष ) – अमरकोष ( २.४.४५ ) में इद्रद्रुः को अर्जुनवृक्षका समानार्थी शब्द बताया है । अतः इन्द्रवृक्ष इन्द्रद्रु और अर्जुनवृक्ष एक ही वृक्षके तीन नाम हैं ।
१४. २. ७ अंकोल्ल―हे. ( ८.१.२०० ) के अनुसार संस्कृतके अंकोठका प्राकृतमें अंकोल्ल हो जाता है। हिन्दीमें इसे अकोला कहते हैं।
- तिरिविच्छ - दे. मा. (५.१३ ) में तिमिरिच्छ नामक वृक्षका उल्लेख है । उसका अर्थ करञ्जद्रम है । प्रतीत होता है कि तिरिविच्छ तथा तिमिरिच्छ समानार्थी शब्द हैं।
--गंगोरी—सम्भवतः यह हिन्दीका गंगेरुवृक्ष है । संस्कृतमें यह कर्कटक नामसे ज्ञात है (वृ. वि. १७९ ) । बुंदेली में इसे गंगेलुआ कहते हैं ।
१४. २. ८ वडोहर — लकुचवृक्षको हिन्दीमें वडहर कहते हैं । वडोहर तथा वडहर एक ही वृक्ष प्रतीत होते हैं ।
- कोरंटा तरलसार - आज्ञात ।
१४. २. ९ फरिस (पुरुषक ) - हिन्दी में इसे फालसा कहते हैं ।
वोक्करण-- कनाडी भाषामें हिन्दीके लसोडा वृक्षको बोकेगेड कहते हैं (बृ. वि. १७६) सम्भव है यही वोक्कण्ण हो । १४.२.१० सुरपायव (सुरपादव ) - इनकी संख्या पाँच है
पंचैते देवतरवाः मन्दारः पारिजातकः ।
सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम् ॥ . को. १.१.५३
१४. ३. ६ पंचत्थिकाय (पंचास्तिकाय ) - जीव पुद्गल, धर्म अधर्म तथा आकाश ये पाँच अस्तिकाय कहलाते हैं । चूँकि ये सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा शरीरके समान बहुप्रदेशी हैं अतः इन्हें अस्तिकाय नाम दिया गया है—
जीवा पुग्गलकाया धमाधम्म तव यासं ।
स्थित यणियदा अणरणमइया अणुमहंता ॥
ते चैव त्थि सहावो गुणेहिं सह पञ्जएहिं विविहेहिं ।
जे होंतिथिकाया fप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं || -- पं० सा० ४, ५ ।
—- छद्दव्व-- अस्तिकायोंमें कालको जोड़नेसे छह द्रव्योंकी संख्या प्राप्त हो जाती है ।
१४. ३. ७ आसव (आस्रव ) -- मन, वचन और कायके परिस्पन्दनको योग कहा जाता है। यही आस्रव हैकायवाङ्मनः कर्म योगः । स स्त्रवः । -त. सू. ६.१, २ ।
- भाव -- जीवके पाँच भाव होते हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक | १४. ३. ९ यत्थ ( पदार्थ ) - सात तत्व तथा पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ हैं ।
१४. ४. ९ करयलसएण संपत्त जाम-सएण के पश्चात् इव आवश्यक प्रतीत होता है । इव ग्रहण करनेपर पंक्तिका अर्थ यह
होगा—जैसे ही विमान आया वैसे ही उस विमानको, जैसे कही सैकड़ों करोंसे विघ्न उपस्थित हुआ । १४.५.१० मेहमति – असुरका नाम मेघमालिन है । उ० पु० (७३-१३६) में उसका नाम शम्बर बताया गया है । वादिराजने अपने श्रीपार्श्वनाथचरित ( ११५८ ) में उसका नाम भूतानन्द दिया है ।
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