Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 532
________________ टिप्पणियाँ [ २२७ मास्तम्भ कहा जाता है। पार्श्वनाथ के मानस्तम्भोंका बाहुल्य दो हजार चार सौ पचानबे बटे चौबीस धनुष प्रमाण था ( ति. व. ४. ७७६ ) । १५. ७.४ नट्टसाल (नाट्यशाला ) - प्रथम वीथियों, पृथक-पृथक् वीथियोंके दोनों पार्श्वभागों तथा सभी वनोंके आश्रित समस्त वीथियोंके दोनों पार्श्वभागों में दो-दो नाट्यशालाएँ होतीं हैं। इनमें भवनवासिनी तथा कल्पवासिनी देवकन्याएँ नृत्य किया करतीं हैं । १५. ७. ४ घय ( ध्वज ) — ति प ( ४.८२० ) के अनुसार ध्वजभूमिमें दिव्य ध्वजाएँ होतीं हैं जो सिंह, गज, वृषभ, गरुड मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म तथा चक्र इन चिन्होंसे अङ्कित होने के कारण दस प्रकारकी होतीं हैं । १५. ७. ५ बारह थाणंतर ( द्वादशस्थानान्तराणि ) -- इनसे आशय श्रीमण्डपमें वर्तमान बारह कोठोंसे प्रतीत होता है । इन बारह कोठों में क्रमशः (१) गणधर प्रमुख, (२) कल्पवासिनी देवियाँ ( २ ) आर्यिकाएँ तथा श्राविकाएँ, ( ४ ) ज्योतिष्क देवोंकी देवियाँ, (५) व्यन्तर देवोंकी देवियाँ, (६) भवनवासिनो देवियाँ ( ७ ) भवनवासी देव, (८) व्यन्तरदेव, (९) ज्योतिष्क देव (१०) सौधर्मस्वर्गसे अच्युतस्वर्ग तकके इन्द्र तथा देव, (११) चक्रवर्ती, मण्डलिक राजा तथा अन्य मनुष्य, एवं ( १२ ) तिर्यञ्च बैठते हैं । १५. ७. ६ सोवाणपंत्ति ( सोपनपंक्ति ) - समवसरणमें देव, मनुष्य और तिर्यनों के चढ़नेके लिए आकाशमें चारों दिशाओंमें से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर स्वर्णमय बीसहजार सीढियाँ होतीं हैं । भगवान् पार्श्वनाथके समवसरणमें सीढियोंकी लम्बाई अड़तालीससे भाजित पाँच कोस थी। इन सोपान पंक्तियोंके अतिरिक्त वापियों, वीथियों, कोठों आदि में भी सोपान पंक्तियाँ रहतीं हैं । १५. ७. ७. पडिम ( प्रतिमा ) - मानस्तम्भपर, चैत्यवृक्षोंके आश्रित तथा भवनभूमिके पार्श्व भागों में स्थित स्तूपोंपर आठ-आठ प्रतिहार्योंसे संयुक्त मणिमय जिनप्रतिमाएँ वर्तमान रहतीं हैं ( ति. प. ४.७८१, ८०७, ८४४ ) । १५. ८. २ सव्वण्हु ( सर्वज्ञः ) - यह सव्वण्णु का ही रूप है। चूंकि यह शब्द इसी रूपमें अनेक बार आया है अतः इसे इसी रूपमें रहने दिया गया है । १५. ८. ५ चउसट्ठि जक्ख ( चतुःषष्टि यक्षाः ) तोर्थङ्करोंको सर्वत्र चौसठ चमर सहित कहा गया है चउसट्ठिी चमरसहि चउतीसहि अइसएहिं सजुत्तो । द. पा. २९ । इन चमरोंको धारण करनेवाले यक्षों का ही यहाँ यह उल्लेख है । १५. ८. ९ वि देव (अष्टावपि देवाः ) - पार्श्वनाथ के आठ गणधरोंसे आशय प्रतीत होता है। आठ गणधरोंके वारे में १५. १२. १ पर दी गई टिप्पणी देखिए । १५. ९. ६ चारित्तदसद्ध ( चारित्रदशार्ध) - पाँच आचारोंसे आशय है । इन पाँच आचारोंके नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) ज्ञानाचार ( २ ) दर्शनाचार ( ३ ) तपाचार (४) वीर्याचार तथा ( ५ ) चरित्राचार । १५. १२. १ सयंभू ( स्वयंभू ) - ति. प. (४. ९६६ ) के अनुसार भी पार्श्वनाथ के प्रधान एवं प्रथम गणधरका नाम स्वयंभु था । उ. पु. श्री. पा. आदि ग्रन्थों में भी पार्श्वनाथके प्रधान गणधरका यही नाम दिया गया है। किन्तु त्रि. च. ( ९.३. ३५८ ), सि. पा. (पृ. २०२ ) तथा पा. च ( ५. ४६१ ) में पार्श्वनाथके प्रथम गणधर का नाम आर्यदत्त दिया है। पार्श्वनाथके गणधरोंकी संख्या के विषय में भी सब ग्रन्थ एकमत नहीं हैं । आ. नि. ( २० ) ति. प. ( ४.९६३ ), उ. पु. ( ७३. १४६ ) तथा इसके पश्चात् के समस्त ग्रन्थोंमें पार्श्वनाथ के गणधरोंकी संख्या दस बताई गई है। हेमविजयगणिके अनुसार उन दसके नाम इस प्रकार हैं Jain Education International 'आर्यदत्त, आर्यघोषो वशिष्ठो ब्रह्मनामकः । "सोमश्च 'श्रीधरो वारिषेणो 'भद्रयशा 'जयः ॥ " विजयश्चेति नामानो दशैते पुरुषोत्तमाः । पा. च. ५. ४३७, ४३८ स्थानाङ्ग ( ८. ७८४) तथा कल्पसूत्र ( १६० ) के अनुसार पार्श्वनाथके गणधरोंकी संख्या आठ थी— पासस्सणं रह पुरिसादाणीयस्स व गणा गणहरा हुत्था तं जहा "सुभे यजघोसे यवसिठठे बंभयारि य । "सोमे सिरिहरे चैव वीरभद्द े 'जसेवि य ॥ For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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