Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 526
________________ टिप्पणियाँ [ २२१ । इसे ही ग्रह १३.७.३ गहलत्तिउ ( ग्रहलत्तित: ) - प्रत्येक ग्रह अपने नक्षत्र से आगे या पीछेके नक्षत्रोंको प्रभावित करता द्वारा लात मारना कहा जाता है तथा जो नक्षत्र इस प्रकार प्रभावित हो वह 'गहलत्तिय ( ग्रहसे लतयाया गया ) कहा जाता है । बुध पीछेके सातवें नक्षत्रपर, राहु आगेके नौवें पर, पूर्णचन्द्र पीछेके बावीसवेंपर, शुक्र आगे तथा पीछेके पाँचवें पर सूर्य आगे के बारहवें पर, शनिश्चर आगेके आठवेंपर, बृहस्पति आगेके छठवेंपर तथा मंगल आगे के तीसरे नक्षत्रपर लात मारते हैं (मु. चिं. ६.५९ ) । जो नक्षत्र किसी ग्रह के द्वारा लतयाया गया हो वह त्याज्य होता है । – छादिउ — पातदोषसे तात्पर्य है । हर्षण, वैधृति, साध्य, व्यतीपात, गण्ड तथा शूल योगोंके अन्तमें जो नक्षत्र होगा वह पातदोष से दूषित होगा । वेहजुत्त ( वेधयुक्त ) – ग्रहोंसे जो नक्षत्र विद्ध ( वेधयुक्त ) हो वह दुष्ट या अशुभ होता है अतः वह त्याज्य हैवेधदुष्टमिति मं विसृजेत् — वि. मा. २.५८ क्रूर ग्रहोंसे विद्ध नक्षत्रका फल प्राणहानि तथा सौम्यग्रहों से विद्ध नक्षत्रका फल कर्मनाश है तद् ग्रहवेधयुते चर्क्षे यत्कृतं तद्विनश्यति । क्रूराणां तु हरेत्प्राणान् सौन्यानां कर्मनाशकृत् ॥ —संज्झागउ ( सन्ध्यागतः ) तथा अंथवणेपत्तु ( अस्तमने प्राप्तः ) – इन दो दशाओंको प्राप्त नक्षत्रोंको शुभ कार्यों में त्याज्य कहा गया है— संज्झागयं रविगयं विड्डरसग्गहं विलंबं च । राहुहयं गभिन्नं विवज्जए सत्तनखत्ते । दि. दी. १६की टीका. १३. ७. ४ केउ राहु ( केतुराहु ) - केतुका फल भी राहुके समान ही होता है अतः वह भी एक पापग्रह है । इस कारण जिस नक्षत्र में वह हो वह आलिंगित होनेसे वर्ज्य होगायत्नात् त्याज्यं तु सत्कार्ये नक्षत्रं राहुसंयुतम् । १३. ७. ५ दसहं मि जोगहं ( दशानां योगानाम् ) - अश्विनी आदि चन्द्रमा और सूर्यके नक्षत्रकी संख्या जोड़कर सत्ताइसका भाग देनेसे यदि ०, २, ४, ६, १०, ११, १५, १८, १९, या २० शेष रहे तो दशयोग होता है। चूंकि यह अनिष्ट - कारी है अतः इसकी शुद्धि आवश्यक है (मु. चिं. ६.७० ) । १३. ७. ६ तिकोण (त्रिकोण) – कन्याकी राशि नौवीं तथा वरको पाँचवीं हो तो त्रिकोण दोष होता है लग्नात् सुतं च नवमं च विदुस्त्रिकोणम् |- (वि. मा. १.१४ ) । —छट्टट्ठ (षष्ठाष्ट ) - कन्याकी राशि छठवीं तथा वरकी आठवीं हो तो पष्ठाष्टक दोष होता है । मृत्यु इसका फल है (मु. चिं. ६.३१ ) । १३. ७. ७ तुलविहुए ''' । तुला, मिथुन तथा कन्या राशियाँ विवाहके लिए शुभ मानी गयी हैं पष्ठतौलि मिथुनेषूद्यत्सु पाणिग्रहः – बृ. सं. ९९.७. धणु अद्धलग्गु – धनुराशिको यहाँ अर्धलग्न कहा है । विद्यामाधवीयमें इसे मध्यम प्रकारकी राशि बताया हैमध्याः कुलिरझषचापवृषा विवहे - वि. मा. ८.३५ । १३. ७. ८ कोंडलियहि लेंति - तात्पर्य यह है कि ज्योतिषी द्वारा शुभग्रहोंको भी ध्यानमें रखकर उनके फल तथा उनके - द्वारा किए गए अशुभ ग्रहोंके प्रतिकार पर भी विचार किया जाना चाहिए । १३. ७. ९ तिहिं वज्जिय - तीनसे यहाँ आशय भकूट, लत्ता तथा गण्डान्त दोषोंसे है। इन तीनों दोषोंके रहनेपर विवाह नहीं किया जाता है । इस कारणसे आवश्यकता आनेपर इन तीनको छोड़कर यदि अन्य कोई ग्रह या नक्षत्र दोष हुआ तो विवाह किया जा सकता है । - परिविद्धि (परिवृद्धि ) परिवृद्धि से आशय दोषोंकी बहुतायत से प्रतीत होता है । कहनेका तात्पर्य यहाँ यह है कि यदि कुण्डली कारण किसी विशिष्ट लग्नमें अनेक दोष हों तो उस लनमें विवाह नहीं करना चाहिए। १३. ८. १ सोमग्गह (सौम्यग्रह ) - बुध, गुरु तथा शुक्र ये तीन सौम्य ग्रह हैं । १३. ८. २ मयलंछृणु''चवन्ति - चन्द्रमा शुभ तथा अशुभ दोनों ही है- द्वैषीभावश्शशांकस्य । क्षीणचन्द्र अर्थात् कृष्णपक्ष Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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