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पार्श्वनाथचरित है तथा कुम्भ राशि एक स्थिर राशि है। भिन्न-भिन्न दिनोंमें विवाह करनेसे उनका परिणाम किसपर कैसा होता है उसे रत्नने इसप्रकार बताया है
भौमवारे स्त्रियो नाशः पुरुषस्य शनेदिने । रविवारे तु दारिद्रयमन्ये वारास्सुशोभना ।।
-वि. मा ८.३६ की मुहूर्त दीपिका टीका पृ० १९७. १३.६.१० रविगुरुससिहि असुदहि-शुभ दिन भी भिन्न-भिन्न कारणोंसे अशुद्ध हो जाते हैं, उदाहरणार्थ यदि रात्रिमें दिखने
वाले ग्रहों में से मंगल या शुक्र दिनमें दिख जाएँ तो जिस दिन या जिन दिनों वह दिखाई दे वह दिन या वे दिन अशुद्ध माने जाएँगे (वि. मा. २.५६)। किन्ही विशिष्ट तिथियोंके किन्ही विशिष्ट दिनोंपर आनेसे वे दिन भी अशुद्ध हो जाते हैं, जैसे कि रविवारको द्वादशी और चतुर्थी, सोमवारको षष्टि और एकादशी अथवा बृहस्पतिवार को षष्टि, अष्टमी और नवमीके आनेसे दग्ध तिथि या विषाख्ययोग हो जाता है, जो सर्वथा वर्ण्य है। इसी
कारणसे वे दिन भी अशुद्ध हो जाते हैं (मु. चिं. १.८,९)। १३.६.११ अत्थमियहिं गुरुभिगुणंदहि-यहाँ यह कथन किया गया है कि गुरु तथा शुक्रके अस्त रहने पर दीक्षा तथा विवाह
शुभ नहीं होते किन्तु अन्यत्र यह बताया गया है कि न केवल उनके अस्तंगत रहने पर ही किन्तु उनके बालक
तथा वृद्ध होने पर भी किए गए विवाह, चौलकर्म आदि शुभ नहीं होते ( मु. चिं. ५.१६ तथा वि. मा. २.२६)। १३.७.१ रवि, राहु, मंगल तथा शनि पापग्रह हैं। क्षीणचन्द्र तथा पापग्रहोंके साथ यदि बुध हुआ तो वह भी पापग्रह हो
जाता है-"क्षीणेदर्कमहीसुतार्कतनयाः पापा बुधैस्तैर्युतः" । इन पापग्रहोंको क्ररग्रह या असत्ग्रह भी कहा जाता है। पापग्रहोंके अतिरिक्त जो ग्रह हैं वे सौम्यग्रह, सत् ग्रह या शुभ ग्रह कहलाते हैं
असत्क्रूरायाः पापारशुभास्सत्सौम्यसंज्ञिताः-वि. मा. १.२० १३.७.२ आलिगिउ-आलिंगित दोष एक नक्षत्र-दोष है। ऋरग्रह जिस नक्षत्र में हो वह नक्षत्र उस ग्रह द्वारा आलिंगित
कहा जाता है। यह नक्षत्र शुभ कार्योंके लिए त्याज्य हैनक्षत्रं क्रूरसंयुक्त विद्यादालिंगितं प्रिये ।-वि. मा. २.४७ पर मुहूर्तदीपिका टीका। अभिधूमिउ-अभिधूमित भी एक नक्षत्र दोष है। जिस नक्षत्र पर ऋरग्रह आनेवाला है वह दुष्ट नक्षत्र होता है तथा इस अवस्थाको ही अभिधूमित दोष कहा जाता हैक्रूरमुक्तं भवेद्दग्धं तदग्रस्थं विधूमितम्।-वि. मा. २.४७ पर मुहूर्तदीपिका टीका। -चतु-यह चव (त्यज ) धातुका वर्तमानकालिक कृदन्त है इससे आशय क्रूरग्रह-द्वारा छोड़े जानेवाले नक्षत्रका प्रतीत होता है। क्रूरग्रह जिस नक्षत्रको छोड़ देता है वह दग्ध नक्षत्र कहलाता है जो दुष्ट होनेसे त्याज्य होता है। आलिंगित, अभिधूमित तथा दग्ध इन तीन नक्षत्र-दोषोंकी व्याख्या हरिभद्राचार्यने इन शब्दोंमें की है
सणिमंगलाण पुरो धूमियमालिंगियं च तज्जुत्तं ।
आलिगिस्स पच्छा जं रिक्खं तं भवेद्दई । दि० दी०१९ की टीका, पृ० ९८. ऋरग्रहों द्वारा प्रभावित नक्षत्रोंकी उक्त तीन अवस्थाओंके नाम क्रमशः युक्त या ज्वलित, कांक्षित या यियासित तथा युक्त या दग्ध भी हैं । इनका फल भारद्वाजने इस प्रकार बताया है
दग्धेन मरणं विद्यात् ज्वलितेन कुलक्षयम् । धूमिते भंगमायाति तस्मात्त्रीणि त्यजेत् सदा ॥
-वि०मा०२.४७ पर मुहूर्तदीपिका टीका। -रविदव्यु-दव्वुके स्थानमें 'दड्दु' या 'दिट्ट' पाठ आवश्यक प्रतीत होता है । रवि एक क्रूर ग्रह है अतः उसकेद्वारा छोड़ा गया नक्षत्र दड्ढ (दग्ध ) नक्षत्र होगा। किन्तु दग्ध नक्षत्रोंका उल्लेख 'चवंतु' केद्वारा पहिले किया जा चुका है अतः यहाँ 'दिट्ठ' (दिष्ट) ग्रहण करना उपयुक्त होगा। सूर्य अपने स्थानसे सातवें स्थानको या नक्षत्रको पूर्ण दृष्टिसे देखता है। जिस नक्षत्रको अशुभ ग्रह रवि देखता है वह अशुभ होता है; यथार्थमें यह भस्म योग है। उसमें किया गया समस्त कार्य सर्वथा निरर्थक होता है
सूर्यात् सप्तमं ऋशं भस्मयोगं तु तद् भवेत् । यत्किचित् क्रियते कार्य तत्सर्व भस्मसात् भवेत् ॥
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