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८. ७. ३ ८. ७. ४
टिप्पणियाँ
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उन्हें जगाने के लिए बजाए गए होंगे। पद्म. च. ( ३. १४० ) तथा आ. पु. ( १२. १२१ ) में तीर्थंकर माता के स्वप्न देखने के पश्चात् वन्दीजनोंकी जयजयकार तथा वाद्योंकी ध्वनिसे जागनेका वर्णन है । इस कडवकर्मे निम्नलिखित वाद्योंका उल्लेख है - तूर्य, मंदि, दिघोष, सुघोष, टट्टरी, कंसाल, काहलि, भेरी, भम्भेरी, भम्भा, वीणा, वंश, मृदंग, हुडुक्का, झल्लरी तथा सद्दाल । सद्दालका अर्थ नूपुर ( दे. मा. ८. १०. ) तथा मुखरित होता है। चूँकि रूंज शब्दका भी मुखरित अर्थ होता है और वह शब्द भी सद्दालके साथ ही प्रयुक्त हुआ है अतः सद्दालका अर्थ नूपुर ग्रहण करना उपयुक्त है चूँकि यह एक संगीतात्मक ध्वनि करता है अतः अन्य वाद्योंके साथ यहाँ उसका भी समावेश कर लिया गया है।
इस asa में गद्यका प्रयोग किया गया है । पद्य-ग्रन्थोंमें गद्यका प्रयोग जब कब किया जाना परम्परागत प्रतीत होता है । स्वयंभूने पउमचरिउके विज्जाहर काण्डके प्रारम्भ में भी गद्यका प्रयोग किया है।
भुवं झिझीवं तथा रटं ठटं अनुरणनात्मक शब्द हैं ।
गंवरंगं - इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है । सम्भव है कविका आशय गौर रंगसे हो जिसका लाक्षणिक अर्थ यहाँ आकर्षक लिया जा सकता है।
करालं—इसका अर्थ गम्भीर या उच्च स्वर लेनेसे सुदरंसे इसकी विरोधता दूर हो जाती है ।
८. ९. १ तीर्थंकरकी माता द्वारा देखे गए सोलह स्वप्नोंका फल आदिपुराण में बताये गये सोलह स्वप्नोंके फलोंसे कुछ अंशों में भिन्न है जैसे कि
श्रृणु देवि महान्पुत्रो भविता ते गजेक्षणात् - आदि
( देखिए आ. पु. १२. १५५ से १६० )
८. ११. १ करण-तिथिके आधे भागको करण कहते हैं, इस कारणसे एक तिथिमें दो करण होते हैं ( भा. ज्यो. पू. १५८ ) । करणोंकी संख्या ग्यारह है । इनके विशेष विवरणके लिए देखिए मु. चिं. ३०.१४से १७
- जोय (योग) विष्कंभ, प्रीति आदि सत्ताइस योग होते हैं । इनके विशेषण विवरण के लिए देखिए आ. सि. १. ३९ से ८३ तथा भा. ज्यो पृ. १५७ ।
८. ११. २ उच्चत्थ ( उच्चस्थ ) - जब सूर्य, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र तथा शनि क्रमशः मेष, वृष, मृग, कन्या, कर्क, मीन तथा तुला राशियों में स्थित हों तब वे उच्चस्थ ( उच्चस्थान में स्थित ) कहलाते हैं
अर्काद्युच्चान्यजवृषमृगकन्या कर्क मीनवणिजोऽशैः । आ. सि. २.११
राहुका उच्च स्थान मिथुन राशि है - राहूच्चं मिथुनः स्मृतः । सातो ग्रहोंके उच्च स्थानोंपर रहने के समय उत्पन्न व्यक्ति तीर्थंकर होता है
तिहिं उच्चेहि गरिदो पंचहिं तह होइ अद्धचक्की । afe is reaट्टी सत्तहिं तित्थंकरो होई ||
८. ११. ३. एयादसत्थि ( एकादशस्थितेषु ) - अर्थात् जब सब ग्रह ग्यारहवें स्थान में स्थित थे । ग्यारहवें स्थानमें किसी भी ग्रहका फल अनिष्टकर नहीं होता, उसमें सब ग्रह सुख देनेवाले होते हैं (बृ. सं. १०२. ११ तथा भा. ज्यो. प्र. ३३५) ८. ११. ५ अट्ठोत्तर ..... । - तीर्थंकर में जन्म से ही दस अतिशय होते हैं। उनके शरीर में एक हजार आठ शुभ लक्षण होना
उन दस अतिशयों में से एक अतिशय है । ( ति. प. ४. ८९६ से ८९८ )
८. १२. १ तीर्थंकरके जन्म के समय इन्द्रका आसन हिलना, अवधिज्ञानसे इन्द्रको तीर्थंकर के जन्मकी सूचना मिलना, उसके द्वारा देवोंको तीर्थंकरके जन्माभिषेक समारोह में जानेका निदेश देना तथा तीर्थंकर के जन्माभिषेकका वर्णन परंपरागत है | कल्पसूत्र (९७ से १०१) में इन सबका वर्णन किया गया है । ति प . ( ४. १८२८, १८२९ ) में इनका उल्लेख है तथा पद्मचरित ( ३. १६० से १८५ ) और आदिपुराण में इनका विस्तारसे वर्णन है । आदिपुराण ( १३.१३ ) में तीर्थंकर के जन्मकी सूचना कल्पवासियोंको घंटानादसे, ज्योतिष्कोंको सिंहनादसे, व्यंतरोंको भेरीनादसे तथा भवनवासियोंको शंखनादसे मिलनेका उल्लेख है ।
८. १२. १० अट्टगुणेसर ( अष्टगुणेश्वर ) - अणिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व ये आठ गुण देवोंके वैक्रियिक शरीर में होते हैं ।
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