________________
२१०]
पार्श्वनाथचरित अणिमाद्यष्टगुणाः -शा. स. २. ३. १५. ८.१२.११जाइवि....."अचलिंदहो-तीर्थोंकरोंका जन्माभिषेक देवों द्वारा मेरु पर्वतपर किया जाता है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रोंमें
उत्पन्न तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक भिन्न-भिन्न शिलाओंपर किया जाता है। जो भरतक्षेत्रमें उत्पन्न होते हैं उन तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक पाण्डुकशिलापर किया जाता है. (ति. प. ४. १८२७, १८२८)। त्रि. च., पाव. च. आदि ग्रन्थों में भरतक्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थकरोंका अभिषेक पाण्डुकम्बल शिलापर किए जानेका वर्णन है। देखिए.
त्रि. च. १.२.४२९ तथा ८. ५.१८२ तथा पार्श्व. च. ४.२४१ । ८.१३.७ णक्खत्तमाला (नक्षत्रमाला)-सत्ताईस मुक्ताओंसे बनी माला नक्षत्रमाला कहलाती है-सैव नक्षत्रमाला
स्यात्सप्तविंशतिमौक्तिकैः-अ. को. २.६.१०६।। ८.१४.३ कंदप्प ( कंदर्प)-देवोंका एक प्रभेद । जो प्राणी सत्य वचनसे रहित हैं, नित्य हो बहुजनसे हास्य करते हैं तथा
जिनका हृदय कामासक्त रहता है वे कंदर्प देवोंमें उत्पन्न होते हैं । (ति. प. ३. २०२) –दप्प (दर्प)-अभिमानी देव ।। -डामरिय-कलहकारी या कलहप्रिय देव । -फंफावा-ति. प. ८.५७२में पप्पव देवोंका उल्लेख है। ये देव संगीत और नृत्यप्रिय होते हैं फंफाव, संभवतः, पप्पव से ही बना हुआ शब्द है। फंफावामें अन्तिम अ का दीर्धीकरण छंदकी अपेक्षासे हुआ है। फंफाव देवोंका उल्लेख पउमचरिउ (३.६.९ )में हुआ है। वहाँ वे वन्दोजनदेव प्रतीत हते हैं। -वाहण (वाहन )-जो कल्पवासी देवोंकी इच्छानुसार हाथी घोड़ा, आदिका रूप धारण कर उनके वाहनका कार्य करें वे वाहनदेव हैं। जो प्राणी भूतिकर्म, मंत्राभियोग और कोतूहलादिसे संयुक्त हैं तथा लोगोंके गुणगानमें
प्रवृत्त रहते हैं वे वाहनदेवोंमें उत्पन्न होते हैं। (ति.प. ३. २०३) ८.१४.४.किव्विसिय (किल्विषक)-में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देवोंके समान किल्विषकदेव भी होते हैं
(त. सू. ४.४)। जो प्राणी दुर्विनयी तथा मायाचारी हैं वे किल्विषकदेवोंमें उत्पन्न होते हैं (ति.प. ३.२०४)।
ति.प. के अनुसार ही ये देव चाण्डालकी उपमा धारण करनेवाले रहते हैं (ति.प. ३.६८)। ८.१५.४. पउलोमि "लेवि-अन्य ग्रन्थोंमें इन्द्रानी द्वारा तीर्थकर-बालकको अभिषेकके लिए ले जाते समय तीर्थंकर-माता
को बालकके अपने पास न रहनेके कारण उत्पन्न हुई आतुरतासे बचानेके लिए भिन्न-भिन्न युक्तियोंका सहारा लिया गया है। पद्मचरितमें इन्द्रानी द्वारा तीर्थकर-माताके पास एक मायाबालको रखकर जिन-बालकको ले जानेका वर्णन है । आदिपुराण (१३.३१) में जिन-माताको मायानिद्रायुक्त करने तथा उनके पास माया-शिशुके रखनेका उल्लेख है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि ग्रन्थोंमें उक्त दो से किसी एक युक्तिको अपनानेका
वर्णन किया गया है । प्रस्तुत काव्यमें ऐसी कोई युक्तिके अपनाए जानेका वर्णन नहीं किया गया। ८.१६.६. समचउरंसदेह (समचतुरस्रदेह) जिसमें ऊपर नीचे और मध्यमें कुशल शिल्पीके द्वारा बनाये गये समचक्रकी
तरह समान रूपसे अवयवोंकी रचना हो वह समचतुरस्र देह कहलाती है । यह देह समचतुरस्र संस्थान नामक
नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती है। ८.१७.२ चालीस होंति (चत्वारिंशत् भवन्ति )-भवन-वासियोंके दस भेद हैं, प्रत्येकके दो-दो इन्द्र तथा दो-दो प्रति-इन्द्र
होते हैं। इस प्रकार भवनवासियोंके चालीस इन्द्र होते हैं। इनके नामादिके लिए देखिए ति. प. ३. १४ से १६ । ८.१७.३ बत्तीस भेय (द्वात्रिंशत् भेदाः) व्यन्तर देवोंके आठ भेद हैं । प्रत्येकके दो-दो इन्द्र तथा दो-दो प्रति-इन्द्र होते हैं।
इस प्रकार व्यन्तरोंके कुल बत्तीस इन्द्र हुए (-ति. प. ३.३४से ४९)। ८.१७.५
तीर्थकरके जन्माभिषेकके समय तिर्यंचोंमेंसे सिंह तथा मनुष्योंमेंसे चक्रेश्वर द्वारा कलश ग्रहण करनेका उल्लेख
अन्यत्र किसी ग्रन्थमें प्राप्त नहीं हो सका। ८.१७.७
काप्पामरेन्द......"चउवीस ....... |-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार तथा माहेन्द्र इन चार प्रारम्भिक कल्पोंमें तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार अन्तिम कल्पोंमेंसे प्रत्येकमें एक-एक इन्द्र होता है तथा बीचके आठ कल्पोंमेंसे प्रत्येक दो-दोमें एक-एक इन्द्र होता है। इस प्रकार इन समस्त कल्पोंमें इन्द्रोंकी संख्या बारह तथा प्रतिइन्द्रोंकी भी बारह ही होती है। इस प्रकार कल्पोंके कुल इन्द्रोंकी संख्या चौबीस होती है। इन इन्द्रोंके नाम उन कल्पोंके ही समान होते हैं जिनमें वे निवास करते हैं।
ह हुए (-ति. प. ३.३. प्रत्येकके दो-दो इन्द्र शाखा ति. प. ३. १४ से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org