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टिप्पणियाँ
[२११ ८.१७.८ सउ इन्दहं (शतमिन्द्राणाम्)-पउमचरिय, पद्मचरित, आदिपुराण आदि ग्रन्थोंमें तीर्थंकरके जन्माभिषेकके
समय सौ इन्द्रों द्वारा कलश लेने या अभिषेक किए जानेका वर्णन नहीं है। एक परम्पराके अनुसार जन्माभिषेकके समय चौसठ इन्द्रोंके उपस्थित रहनेका वर्णन किया जाता है
__भवणिदं वीस वंतरपहु दुत्तीसं च चंदसूरा दो।
कप्पसुरिंदा दस इय हरि चउसट्टित्ति जिणजम्मे ॥ अभि. राजे. पृ. २२६०. ८.१७.१० सोहम्मसुरेसरहो (सौधर्मसुरेश्वरस्य)-तीर्थंकरका जन्माभिषेक सौधर्म तथा ईसान कल्पोंके इन्द्रों द्वारा किया
जाता है । (ति.प.४.१८२९) -एहवणु(स्नपनम) छन्दशास्त्र सामान्य नियमके अनुसार संयुक्त व्यञ्जनके पूर्वका स्वर गुरु माना जाता है। किन्तु यहाँ ण्हवणके ग्रह के एक संयुक्त व्यञ्जन होते हुए भी उसके पूर्वका स्वर गुरु नहीं माना गया । ८.१९.६,७,९,१० तथा १२ पर भी 'ह' के पूर्वका स्वर गुरु नहीं माना गया। प्रा. पैं. १.४ में संयुक्त व्यञ्जनके पूर्वको अपवाद रूपसे
लघु माननेकी छूट दी गई है । अतः उक्त स्थलोंपर छन्द-दोषकी आशङ्का नहीं की जा सकती। ८.१८.४ गवरसहि अट्ठभावहि (नवरसैः अष्टभावैः)-यहाँ नाट्य शास्त्रको नवरसों तथा आठ भावोंसे महान कहा गया है। किन्तु नाट्यशास्त्रमें केवल आठ ही रसोंका प्रतिपादन किया है
शृङ्गार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानकाः।
बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्य रसाः स्मृताः॥ ना. शा. ६.१५. शान्त नामक नौवें रसको अन्य काव्यशास्त्रज्ञों द्वारा स्वीकार किया गया है-शान्तोऽपि नवमो रसः-का.प्र.४.३५ आठ भावोंसे यहाँ आशय नाट्यशास्त्र में वर्णित आठ रसोंके स्थायीभावोंसे है। उनके नाम इस प्रकार हैं
रतिहासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा ।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायीभावाः प्रकीर्तिताः॥ ना. शा. ६.१७. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्वयंभूदेवने भी पउमचरिउ (२.४.५) में भरतशास्त्रको नौ रसों तथा आठ भावोंसे
युक्त बताया है। ८.१९.७ राहाविज्जंतु-यह स्ना धातुके वर्तमान कृदन्तका कर्मणि रूप है जिसमें कर्ता एकवचनकी 'उ' विभक्ति भी जुड़ी
८.१९.११ अवसप्पिणि आइहि रिसह जेम-यहाँ यह कथन किया गया है कि पार्श्वनाथका अभिषेक देवोंने उसी प्रकार किया
जिस प्रकार कि अवसर्पिणीकालके प्रारम्भमें ऋषभदेवका किया गया था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवका जन्म अवसर्पिणीके सुषमा-दुषमा कालमें तथा निर्वाण उस कालके तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने शेष रह जानेपर हुआ था (देखिए-ति. प. ४.१२७९)। सुषम-दुषमा कालके पूर्व अवसर्पिणीमें सुषमा-सुषमा तथा सुषमा नामक दो काल और होते हैं। अतः यह कहना कि ऋषभदेवका अभिषेक अवसर्पिणीके आदिमें हुआ था कुछ भ्रामक प्रतीत होता है। अवसर्पिणीमें कुल छह काल होते हैं; यदि उसके प्रथम तीन कालोंको उसका आदि तथा अन्तिम
तीनको उसका अन्त माना जाय तो उक्त कथन भ्रमरहित कहा जा सकता है। ८.२०.५ णच्चियं-यह शब्द णच्चिरं (नर्तक ) के अर्थमें प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। उसका यह अर्थ ग्रहण करनेपर
ही उसके 'सुरुवदाम-चच्चियं विशेषणकी सार्थकता स्पष्ट होती है। ८.२०.८ दुग्गिय-यह कोई वाद्य प्रतीत होता है। डुगडुगी नामका वाद्य आज प्रचलित है। संभव है दुग्गियं और
डुगडुगी एक ही हों। ८.२२.५ अखय अणाइ अांत (अक्षय अनादि अनंत)-आत्माके इन लक्षणोंके लिए देखिए-प्र.सा., भा.पा. आदि -
धुवमचलणालंबं मरणे हं अप्पगं सुद्धं ।-प्र. सा. २.१००
एगो मे सस्सदो अप्पा ।-भा. पा. ५६. ८.२३.१. दिण्णु छिज्जु-( दत्तं छेद्यम् ) अन्य ग्रन्थों में इन्द्र द्वारा तीर्थकरके दाहिने अंगूठेसे अमृत संक्रामित करनेका
उल्लेख तो है पर उसे चीरनेका उल्लेख नहीं। ( देखिए पद्म. च. ३. २२१)
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