Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 522
________________ टिप्पणियाँ [२१७ -हय.-मु. चिं (११. १०१) में यके दर्शनको यात्राके समय शुभ बताया है। बृ. सं. में अश्वकी भिन्न-भिन्न चेष्टाओंके फलोंपर विचार किया गया है। भ. सं. में भी इसको चेष्टाओंके फलोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। -छत्त ( छत्र)- मु. चिं. (११. १०० ) तथा रि. स. ( १८९) में छत्रके दर्शनको शुभ बताया है। १०. ५.७-गन्धोवउ (गंधोदक )- इसका अर्थ सुगन्धित द्रव्य या जिनप्रतिमाके प्रक्षालके पश्चात्का जल होता है। यह जल सवेदा शुभ माना जाता है। -कुसुमई (कुसुमानि )-मु. चिं. (११. १०० ) में फूलोंको शुभ बताया है। रि. स. में यूथिका कुसुमको शुभ कहा है। -राहवण (स्नपन )- स्नानसे कविका आशय स्नान करनेवालेसे होगा। इसका दर्शन यात्रामें शुभ हो यह उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं है। १०.५. ८ बंभण (ब्राह्मणाः)-ब्राह्मणोंके दर्शनको मु. चिं ( ११.१०० )में शुभ बताया है। -आहरण ( आभरण)-आभूषणोंके शुभ होनेका उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं है। १०.६. १ इस कडवकमें इक्कीस अस्त्र-शस्त्रोंके नाम आए हैं, उनमें-से (अ) सर' (शर)-तथा चाप धनुषके समानार्थी शब्द हैं। (आ) खुरुप्प (या खुरप्प-क्षुरप्र)-अइंदु ( अर्धेन्दु), णाराय (नाराच ) तथा कर्णय (कनक) भिन्न-भिन्न प्रकारके बाण हैं। (इ) तोमर, भल्ल', कुंत तथा वावल्ल भालाके प्रकार हैं। (ई) तिसूल" ( त्रिशूल), सव्वल", सत्ति" (शक्ति) ये तीनों भालेके ही प्रकार हैं किन्तु ये समूचे लोहे के ही होते थे। (उ) करवाल" तथा असिपत्त" ये दोनों तलवारके ही नाम हैं। (ऊ) चित्तदंड (चित्रदण्ड)-एक प्रकारका लट्ठ था जिसके एक सिरे पर अनेक नुकीले कीले होते थे। (ए) मुग्गर (मुद्गर)--तथा घणे (घन ) ये गदा तथा हथौड़ेके आकारके शस्त्र थे। (ऐ) रेवंगि'--इस शस्त्रका विशिष्ट आकार ज्ञात नहीं हो सका पर प्रतीत होता है यह करौंत जैसा कोई शस्त्र था। (ओ) पट्टिस-यह एक प्रकारकी तलवार थी जिसका फल तलवारकी अपेक्षा लम्बा और लचीला होता था। (औ) चक्क" (चक्र ) यह एक गोलाकार अस्त्र था जिसकी परिधि पर अनेक नुकीले तथा पैने कीले लगे रहते थे। १०.७. १ देवघोष ( देवघोष)-यह पार्श्वनाथके रथका नाम है। अन्य पार्श्वनाथ चरित्रों में इसका उल्लेख है कि पार्श्वनाथ द्वारा संग्राम-यात्रा प्रारब्ध करते समय उनके पास इन्द्र-द्वारा भेजा गया रथ मातलिने प्रस्तुत किया। (सि. पा. पृ. १५९ तथा पाश्र्व. च. ४.५६८)। १०.९. ८ सरयाचलरूवधारि (शरदाचलरूपधारिणी)-यह नारीका विशेषण है किन्तु इसके अर्थके बारेमें कुछ सन्देह है। 'सरयाचल'का अर्थ यदि शरदभ्रचल लिया जाता है तो पूरी उक्तिका अर्थ यह होगा-शरद्कालीन मेघोंके समान चंचल रूपको धारण करनेवाली। १०.१०.३ कंकालिय-इस शब्दका अर्थ भी पूर्णतः स्पष्ट नहीं है। कंकालि दुर्गाके एक रूपका नाम है। यहाँ कंकालियसे तात्पर्य दुर्गाके भक्तसे हो सकता है। दुर्गाके ये भक्त मंत्र-सिद्धि के लिए रात्रि में उस देवीकी पूजा अर्चना किया करते थे। ग्यारहवीं संधि ११. १. २ भुवबलिहे-इसमें तृतीया विभक्तिके लिए षष्ठी विभक्तिका प्रयोग किया गया है। यह पासणदेंरेंका विशेषण है। ११.१.५ खंडंतु मणु-प्रतीत होता है यहाँ कविने मानके अर्थ में मन शब्दका प्रयोग किया है। मानखण्डन करना एक अभिव्यक्ति है। २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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