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पार्श्वनाथचरित
वइपरिवेढो गामो णयरं चउगोउरेहिं रमणिज ।
गिरिसरिकदपरिवेढं खेडं गिरिवेढिदं च कव्वडयं ॥ ति. प.४.१३९८ समुद्रकी वेलासे वेष्टित द्रोणामुख कहलाता है
दोणामहाभिधाणं सरिवइवेलाए वेढियं जाण । ति.प.४.१४०० ६.३.१२ चक्रवर्तीकी छयान्नवे हजार महिलाओंमें राजकन्याएँ, विद्याधरकन्याएँ तथा म्लेच्छकन्याएँ होती हैं। इनमेंसे
प्रत्येककी संख्या बत्तीस हजार रहती है। एक अन्य परम्पराके अनुसार चक्रवर्तीकी महिलाओंको संख्या चौसठ
हजार होती है (देखिए. प. च. ५.१६८) ६.३.१३ बहु"णिरंतरह-यहाँ प्रचुर धान्य उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट हलोंकी संख्या तीन करोड़ बताई गई है। ति.प. के
अनुसार चक्रवर्तीके हलोंकी संख्या एक कोडाकोड़ी तथा गायोंकी संख्या तीन करोड़ है। ६.४.१ चक्रवर्तीकी विजय यात्राका वर्णन परम्परागत शैलीका है । वर्णनमें ति. प. द्वारा निर्दिष्ट शैलीका अनुसरण किया
है। दोनोंमें अन्तर केवल विजय-यात्राके प्रारम्भमें है। ति. प. में चक्रवर्तीकी विजय-यात्रा पश्चिमके म्लेच्छखण्ड
को वशमें करनेसे प्रारम्भ बताई गयी है किन्तु इस ग्रन्थमें वह पूर्व दिशासे प्रारम्भ हुई है। ६.४.११ गिरिवरु-चक्रवर्तियोंका मान भङ्ग करनेवाले पर्वतका नाम वृषभगिरि है। यह पर्वत मध्यम्लेच्छखण्डमें स्थित
है। ( देखिए. ति.प.४-१३५२,३) ६.६.६ अणविराण-(अनविज्ञः)-न विज्ञः अविज्ञः। न अविज्ञः अनविज्ञः; अर्थात् जो अज्ञानी नहीं है। ६.६.७ महल्ला-विभागोंके अध्यक्ष-प्रधान अधिकारी महल्ला कहलाते थे। इस शब्दका सामान्य अर्थ वृद्ध है। ६.६.८ पिउणकम्म (निपुणकर्म)-नर्म सचिवके कार्यसे आशय है। ६.७.२ सेविधवलंबरू-राजभवनोंमें धवलवस्त्रधारी तथा शास्त्रोंमें दक्ष कंचुकी होता था
अन्तःपुरचरो विप्रो वृद्धो गुणगणान्वितः।
सर्वशास्त्रार्थकुशलः कंचुकीत्यभिधीयते ॥ ६.८.४ गुरुपञ्च--अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्वसाधु गुरुपञ्च कहे जाते हैं। ६.८.५ णवणिहिहि "विसाल-यहाँ धनधान्य प्रदान करनेवाली निधियोंसे आशय है। वे पाँच हैं-महाकाल, पाण्डु,
पद्म, पिङ्गल और सर्वरत्न ।। ६. १३. ५ करपंगुरण-करौ एव पंगुरणं ( वस्त्रं ) येषां ते; अर्थात् वे मनुष्य जिनके पास कोई वस्त्र नहीं है तथा जो हाथोंको
शरीरसे लपेटकर शोतसे बचनेका प्रयत्न करते हैं। ६. १६. १ ज्ञानावरणीयके पाँच भेद- (१) मति ज्ञानावरणीय, (२) श्रुतिज्ञा०; (३) अवधिज्ञा०; (४) विपुल
मतिज्ञा०; तथा (५) केवलज्ञा०। ६. १६.३ दर्शनावरणीयके नौ भेद-(१) चक्षुदर्शनावरणीय, (२) अचक्षुदर्श०; (३) अवधिदर्श०; (४) केवलदर्श०;
(५) निद्रादर्श; (६) निद्रानिद्रादर्श०; (७) प्रचलादर्श०; (८) प्रचलाप्रचलादर्श०; तथा (९) स्त्यान
गृद्धिदर्श०।-वेदनीयके दो भेद-(१) सातावेदनीय तथा (२) असातावेदनीय । ६. १६.४ मोहनीयके अट्ठाईस भेद-प्रथमतः दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय नामक दो भेद हैं इनमेंसे प्रथमके
मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तथा सम्यग्प्रकृति ये तीन प्रभेद हैं, दूसरेके कषाय तथा नोकषाय ये दो प्रभेद हैं। इनमेंसे कषाय चार प्रकारका है-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलन। इन चारोंमेंसे प्रत्येकके क्रोध, मान, माया तथा लोभ नामक चार-चार प्रभेद हैं। नोकषायके हास्य, रति, अरति, शोक, भय,
जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद तथा नपुंसकवेद नामक नौ प्रभेद हैं। ६. १६. ५ आयुकर्मके चार भेद हैं-(१) नरकआयु, (२) तिर्यञ्चआयु, (३) मनुष्यआयु तथा (४) देवआयु ।
नामकर्मके तेरानवे भेद-प्रथमतः नामके बेयालीस भेद हैं-(१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) बन्धन, (५) संघात, (६) संस्थान, (७) अङ्गोपाङ्ग, (८) संहनन, (९) वर्ण, (१०) रस, (११) गन्ध, (१२) स्पर्श, (१३) आनुपूर्वी, (१४) अगुरुलघु, (१५) उपघात, (१६) परघात, (१७) आतप, (१८) उद्योत, (१९) उच्छ्वास, (२०) विहायोगति, (२१) त्रस, (२२) स्थावर,
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