Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 510
________________ टिप्पणियाँ [२०५ द्रव्य, क्षेत्र और भावकी शुद्धिके अतिरिक्त कालशुद्धिका उपदेश भी मूलाचर (५.७३ से ७८) में दिया गया है क्योंकि कालशुद्धि आदिके पश्चात् यदि शास्त्रका अध्ययन किया जाता है तो उससे कर्मोंका क्षय होता है अन्यथा कर्मोका बन्ध-"कालशुद्धयादिभिः शास्त्रं पठितं कर्मक्षयाय भवत्यन्यथा कर्मबन्धाय"। ७.३.१ पुव्व (पूर्व)-बारह श्रुतांगोंके अस्तित्वमें आनेके पूर्व जैन आगमशास्त्र चौदह भागोंमें विभक्त था। इन्हें ही 'पूर्व' नाम दिया गया है। आज ये आगमशास्त्र प्राप्य नहीं है क्योंकि ये बहुत पहिले ही लुप्त हो चुके हैं। इनका संक्षिप्त परिचय नन्दी सूत्र षट् खंडागम (धवला टीका, पु०१पृ० ११४ स) तथा गोम्मट सार जीवकाण्ड (३४४,३४५,३६४ तथा ३६५ ) में प्राप्त है। ७.५.२ अणगृहिय..."। यहाँ वीर्याचारकी ओर संकेत है। वीर्याचारके लक्षण इस प्रकार हैं अणुगहियबलविरियो परक्कामदि जो जहुत्तमाउत्तो। जुजदि य जहाथाणं विरियाचारोत्ति णादव्वो ॥ मू. आ. ५.२१६ ७.५.४ छम्मास खवरण ( षण्मास क्षपण)-छह मासके अनशन नामक बाह्य तपसे आशय है। भ. आ. (२१५) के अनुसार यह अधे अनशनका भेद है। -रसचाय ( रसत्याग)-यह एक बाह्यतप है । इसका लक्षण यह है खीरदहिसप्पि तेल गुडलवणाणं च जं परिचयणं । तित्तकटुकसायंविलमधुररसारणं च जं चयणं ।। मू. आ. ५.११५ इस बाह्य तपको ही भ. आ. (२२०) में इस प्रकार बताया है खीरदहिस प्पितेल्लं गुडाग पत्तेयदो य सम्बेसि । गिजहणमोगाहिम परणकुसणलोणमादीणं ॥ ७.५.६ छायालदोस (षट्चत्वारिंशत् दोषाः)-यतिका आहार उद्गम, उत्पादन, एषणं, संयोजन, प्रमाण, अंगार तथा धूम इन दोषोंसे शुद्ध होना चाहिए। इनमें पहिले तथा दूसरेके सोलह-सोलह तथा तीसरेके दस भेद हैं; इस प्रकार ये छयालीस दोष कहे गए हैं। मूलाचार (६.२) में इन दोषोंके साथ कारणदोष भी जोड़ा गया है। कारणदोषका उल्लेख कविने इसी कडवकके घत्तमें अलगसे किया है। भगवती आराधना (२५०) में केवल उद्गम, उत्पाद और एषणाका ही उल्लेख किया गया है। -तिदण्ड (त्रिदण्ड)-मन, वचन तथा कायकी अशुभ प्रवृत्तियोंको त्रिदण्ड कहा जाता है। ७.५.७ मलअन्तराय–सम्यक्त्वके दोषोंसे यहाँ आशय है । वे दो-तीन मूढताएँ, आठ मद तथा छह अनायतन हैं। ७.७.९ छहिं कारणहि"असइ-साधु इन छह कारणोंसे भोजन ग्रहण करता है-(१) वेदनाकी शान्तिके लिए, (२) वैयावृत्यके लिए, (३) पडावश्यक आदि क्रियाओंके लिए, (४) संयमके लिए, (५) प्राण-संधारणके लिए तथा (६) धर्म करनेमें समर्थ होनेके लिए वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमवाए। तघ पाणधम्मचिन्ता कुज्जा एदेहि आहारं ॥मू. आ. ६.६० -छहिं मेल्लहि-साधु इन छह कारणोंसे भोजनका त्याग करता है-(१) आतङ्क होनेपर, (२) उपसर्ग होनेपर, (३) कायकायॆके लिए, (४) ब्रह्मचर्यकी निर्मलताके लिए, (५) प्राणियोंकी दयाके लिए, तथा (६) अनशन आदि तपोंके लिए आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीअो । पाणिदयातवहेउ सरीरपरिहार वेच्छेदो ।। मू. आ. ६.६१ ७. ६.१ दसपंच पमायपयइं (पञ्चदशप्रमादपदानि)-चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय-विषय, एक निद्रा तथा स्नेह ये प्रमादके पन्द्रह भेद हैं। यहाँ इन्हींसे तात्पर्य है। चार विकथाओंमें स्त्रीकथा, राष्ट्रकथा, भोजनकथा तथा राजकथाका समावेश है।। ७. ६.२ दसभेयभत्ति-भक्तिके दस भेद हैं-(१) सिद्धभक्ति, (२) श्रुतभक्ति, (३) चरित्रभक्ति, (४) योगभक्ति, (५) आचार्यभक्ति, (६) पञ्चगुरुभक्ति, (७) तीर्थङ्कर भक्ति, (८) शान्तिभक्ति, (९) समाधिभक्ति, तथा (१०) निर्वाण भक्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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