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पार्श्वनाथचरित -पुव्व (पूर्व)-उत्पाद् आदि चौदह पूर्व । इनके नामादिके लिए देखिए संधि ७ कडवक.३। -संजम (संयम)-अहिंसादिक पाँच व्रत धारण करने, ईर्यापथादिक पाँचों समितियोंको पालने, क्रोधादिक कपायोंको निग्रह करने, मनोयोगादिक तीनों योगोंको रोकने तथा पाँचों इन्द्रियोंको वशमें करनेको संयम कहते हैं।
करण-पश्च नमस्कार, पड़ आवश्यक, आसिका तथा निषेधिका ये करण हैं। सातवीं सन्धि ७.२.१ सील (शील)-तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाबत मिलकर शील कहलाते हैं। ७.२.१ आचार्य वट्टकेरने बारह अंगोंके और चौदह पूर्वोके अध्ययन तथा उनके धारणका निर्देश दिया है-अंगाणि
दसय दोरिण य चोदस धरंति पुव्वाइ। मू. आ.६.६५ बारह अंगोंका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है(१) आयारु अंगु (आचारांग)-यह अंग दो भागोंमें विभक्त है। पहिला भाग सूत्रस्कंध है। इसमें छोटे-छोटे वाक्योंमें महावीर भगवानके उपदेश निबद्ध हैं। इसमें किसी विशिष्ट विषयका व्यवस्थित निरूपण नहीं है। दूसरे भागमें मुनियोंके आचारका विस्तृत वर्णन है। (२) सुद्दयडु (सूत्रकृतांग)-इसमें मुनिधर्मके उत्तरदायित्वों तथा कष्टोंका विस्तृत वर्णन है। साथ ही मुनियोंको जैनेतर मतोंसे सावधान रहने, अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों द्वारा पुनः गृहस्थाश्रममें लौटा ले जानेके लिए किये गये प्रयत्नोंसे बचने एवं स्त्रियोंसे सर्वथा दूर रहनेका उपदेश दिया गया है। (३) ठाणु अंगु ( स्थानांग)-इसमें धर्म विषयक बातोंपर व्यवस्थासे प्रकाश डाला गया है। प्रधानरूपसे इसमें सब द्रव्योंका वर्णन है। (४) समवाउ अंगु (समवायांग)-इस अंगका विषय स्थानांगके ही समान है। इसमें समस्त द्रव्योंके पारस्परिक सादृश्यका निरूपण है। (५) विवायपरणत्ति (व्याख्या प्रज्ञप्ति)-अर्धमागधीमें इसके पूरा नाम भगवई-विवाहपण्णत्ती है। इसका निर्देश प्रायः भगवतीसे ही किया जाता है। यह एक विशाल ग्रन्थ है। इसमें जैनधर्मसे सम्बन्धित सभी प्रश्नोंपर प्रकाश डाला गया है। इसके कुछ भाग प्रश्नोत्तरके रूपमें और कुछ वाद-विवादके रूपमें हैं । प्रश्नकर्ता महावीर भगवान के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति हैं तथा उत्तर स्वयं महावीर भगवानने दिये हैं। (६) सिरिणाहाधम्मकहाउ (श्री ज्ञातृधर्मकथा)-इस अंगका संक्षिप्त नाम ज्ञातृकथा है। इसमें गणधरों आदिकी कथाएँ हैं; साथ ही तीर्थंकरोंका महत्व भी बताया गया है। (७) अोवासयअंगु ( उपासकाध्ययन अंग)-इस अंगमें दस श्रावकोंकी चर्याका वर्णन है अतः इसे उवासगदसाओ नाम भी दिया गया है। (८) अंतयडु दसमु (अन्तकृशांग)-इसमें प्रत्येक तीर्थकरके समय उत्पन्न दस-दस मुनियोंकी घोर तपस्या, उपसर्ग-सहन तथा मुक्ति-प्राप्तिका वर्णन है। (९) अणुत्तर दसमु (अनुत्तरौपपादिक दशांग ) इस अंगका विषय आठवें अंगके समान है; अंतर दोनोंमें केवल यह है कि इस अंगमें जिन मुनियोंका वर्णन है वे अनुत्तरोंमें उत्पन्न होते हैं। (१०) पाहावायरण (प्रश्नव्याकरण)-इसमें पाँच पाप-मार्गों तथा पाँच पुण्य-मागोंका उपदेशात्मक विवेचन है। इन दस मार्गोंको ही दस द्वार नाम दिया गया है। (११) विवायसुत्तु (विपाक सूत्र)-इसमें पुण्य-कर्मों द्वारा शुभ फल तथा पाप-कर्मों द्वारा अशुभ फल दिए जानेका विस्तृत विवरण है। (१२) दिद्विवाउ ( दृष्टिवाद)-इस अंगमें जैनेतरमतों तथा उनके निराकरणका वर्णन है। यह प
प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच भागोंमें विभक्त है । यह अंग आज प्राप्त नहीं है। ७.२.११ दव्वु खेत्तु सोहेविणु-अध्ययनके समय द्रव्य, क्षेत्र तथा भावकी शुद्धिका निदेश मूलाचारमें दिया गया है
रुहिरादिपूयमंसं दव्वे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं । कोधादिसंकिलेसा भावविसोही पढणकाले ॥ मू. आ. ५.७६
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