Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 500
________________ टिप्पणियाँ [ १६५ बाह्य तपोंके भेद - अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्तशयनासन तथा कायक्लेशअणण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुतिपरिसंखा । कायरस व परितावो विवित्त सयणास छ । मू. आ. ५. १४६. ३. १. ८. मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंके लिए देखिए सन्धि ६ कडवक १६. ३. १. ९. बहमास -- ये सब उपवास संबंधी व्रतोंके नाम हैं। दिन और रात्रि मिलाकर दोनोंमें भोजनको दो वेलाएँ होती हैं किन्तु धारणाके दिन तथा पारणाके दिन केवल एक ही बार भोजन किया जाता है अतः म (म) अर्थात् छह बारका भोजन त्याग होनेसे दो दिनका उपवास हुआ । तीन 1 अट्टम (अष्टम ), आठबार दसम ( दशम ), दस वार 1 चार पाँच दुवालसम ( द्वादशम), बारह 1 27 "" " 27 मासद्ध–अर्धमास अर्थात् १५ दिनका उपवास, तथा मास अर्थात् ३० दिनका उपवास । मू. आ. ५.१५१ की टीका । ३. १. ११. श्रयावण ( आतापन ) - शीत, उष्ण आदि को सहन करना आतापन तप कहलाता है । 33 19 33 33 Jain Education International 22 27 ३. १. ११. चंदायण ( चन्द्रायन ) - चन्द्रकी कलाओंके अनुसार भोजनके कवलोंकी संख्यामें घटा-बढ़ी करना चान्द्रायण व्रत कहलाता है । " ३. २. ८. चउरंगुलगइगय -- चतुरं गुलिगतिगत — जो पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर उठकर गमन करता है। जंघाचारण ऋद्धि की शक्तिसे किया गया गमन ही इस प्रकार है जिसमें चार अंगुलियोंका सम्बन्ध आता है - चउरंगुमेतहि छंडिय। ति प. ४. १०३७. । इससे स्पष्ट है कि समुद्रदत्त अरविंद मुनिको जंघाचारण ऋद्धिसे सम्पन्न समझता है । - सवण जंघ --जो श्रमण संघके लिए जंघा अर्थात् आधार स्तंभ हो । 35 ३.२.९. मिच्छत्त''''लंघ - यहाँ मिथ्यात्वको कूपकी उपमा दी गई है। उस कूपको कठिनाईसे लांघा जा सकने वाला बतलाया है। किंतु अरविंद मुनिने उसे पार किया है । साधारणतः संसारकी तृष्णासे आतुर जीवके लिए मिध्यात्वरूपी कूपमें गिरना सरल है पर उससे उबरना नितान्त कठिन । ३. २. ११ गारव—ये तीन हैं - ऋद्धि-रस सातविषयान- तिण्णि । मू. आ. ४. ५९. की टीका ३. ३. ४. सम्मत्त—सम्यक्त्व – कुंदकुंदाचार्यने इसकी निम्न परिभाषा दी है हिसारहि धम्मेद्वारह दोसविवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ मो. पा. ६० ३. ३. १० वियलिंदिउ — दो, तीन या चार इंद्रियों वाला जीव विकलेंद्रिय कहलाता है । ३. ४. ४. अट्टारहदोस – अर्हत इन अठारह दोषोंसे मुक्त रहते हैं: - छुह तह भीरु' रोसो रागों मोहो' चिंता जरा '५ १६ रुजा' मिच्चू ं । स्वेद' खेद" मदो रई विहिये णिद्दा " " अणुव्वेगो " ॥ नि. सा. ६. I ३. ४. ५. मग्गण ( मार्गणा ) - जिनके द्वारा जीव-सम्बन्धी खोज की जाए उन्हें मार्गणा कहते हैं। इनकी संख्या १४ है जहि व जासु व जीवा मग्गिअंते जहा तहा दिट्ट । ताओ चोद्दस जाणे सुयणाणे मग्गणा होंति ॥ गइ-इंदियेसु काये जोगे वेदे कसायणाणे य । For Private & Personal Use Only संजम दंसणलेसा भविया सम्मत्त सरिण आहारे ॥ गो. सा. १४०, १४१. ३. ४. ७. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा भोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनमें श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहा जाता है (त.सू.१.२ तथा ४ ) । ३. ४. ८. सम्यग्दर्शनके गुण-दोषोंके संबंध में प्राचीन व्यवस्था इस प्रकारको पाई जाती है: त. सू १. २ में सम्यग्दर्शनका लक्षण मात्र तत्त्वार्थ श्रद्धान बतलाया गया है। सूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंमें वहाँ उसके गुण-दोषोंकी गणना नहीं की गई, हाँ सर्वार्थसिद्धिमें उसकी अभिव्यक्तिके प्रशम, संवेग, अनुकंपा वा आस्तिक्य आदि लक्षण बतलाए हैं। त. सू ६. २४ में तीर्थंकर गोत्रबंधके सोलह कारणों में दर्शन विशुद्धिको प्रथम गिनाया गया है और इसकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें “तस्या अष्टावाङ्गानि निश्शङ्कितत्वं, निश्शङ्किता विचिकित्सविरहः श्रमूढदृष्टिता, उपबृंहणं, स्थितिकरणं, वात्सल्यं, प्रभावनं चेति" इसप्रकार सम्यक्त्वके आठ अंग www.jainelibrary.org.

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