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पार्श्वनाथचरित २.९.१०.इसी आशयकी यह संस्कृत सूक्ति है
अबला यत्र प्रबला बालो राजापि निरक्षरो मन्त्री।
नहि न हि तत्र सुखाशा जीविताशापि दुर्लभा भवति ॥ २.१०.२. आलिहँ आलउ-(अलीकानां आलयः)-अलीकका सामान्य अर्थ असत्य होता है। यहाँ उसका अर्थ अबोध
लिया गया है। पूरी उक्तिका अर्थ पूर्णतः अज्ञानी है। २. ११.१. अवहिणाणु-द्रव्य, क्षेत्र तथा कालसे सीमित इन्द्रिय-अगोचर पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है । भट्टारक अकलंकने
उसकी व्याख्या इन शब्दों में की है"अवधिमर्यादा । अवधिना प्रतिबद्धं ज्ञानमवधिज्ञानम्"-रा. वा.४.४. (सू.१.६ की टीका ) गोम्मटसारमें अवधिज्ञानका निरूपण इस गाथा द्वारा किया गया है
अवहीयदिति श्रोही सीमाणाणेत्ति वरिणयं समये । गो. सा.३६६ २.११. ५. हुंडु संठाणु-विकृत तथा विषम अंगोंवाले शरीरको हुंड संस्थान कहा जाता है । २.११. ७. सेंवलि-नरकका एक वृक्ष । इसके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण होते हैं। २. १४. १. देवयोनिमें शारीरिक दुख नहीं होता केवल मानसिक दुख होता है । उसीका यहाँ वर्णन है । २. १४. ५. वणफल-अज्ञात व अनिष्टकारी फल।। २.१४. ८. देव चार प्रकारके होते हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक।
तारा, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य तथा चन्द्र ये पाँच भेद ज्योतिष्कोंके हैं; असुरकुमार आदि दस भेद भवनवासियोंके हैं: किन्नर आदि आठ भेद व्यन्तरोंके हैं; तथा कल्पज और कल्पातीत ये दो भेद वैमानिकोंके हैं। विस्तारके लिए
देखिए सन्धि १६ कडवक ५, ६, ७, तथा ८ और तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ४। २. १५. ६. तिगुत्ति (त्रिगुप्ति)-आस्रवके कारणभूत मन, वचन और कायकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तियोंकी रोक यही तीन
प्रकार की गुप्ति है। चूँ कि ये रत्नत्रयकी तथा उसके धारककी पापसे रक्षा करती हैं अतः उन्हें गुप्तियाँ कहा जाता है
गोप्त रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः।
पापयोगानिगृहीयाल्लोकपंक्त्यादि निस्पृहः॥ अ.ध.४.१५४ तीसरी सन्धि ३. १. २. पञ्च-महव्वय ( पञ्ज महाव्रतानि) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत हैं। चूँ कि ये पाँचों महापुरुषों द्वारा आचारित तथा महान् सुख और ज्ञानके कारण हैं अतः इन्हें महाव्रत कहा जाता है
महत्वहेतोः गुणभिः श्रितानि महान्ति मत्वा त्रिदशैतानि ।
महासुखज्ञाननिबन्धनानि महाव्रतानीति सतां मतानि ॥ अ.ध.४.१५० की टीका । तथा च
साहति ज महत्थं आचरिदाणी य ज महल्लेहि।
जं च महल्लाणि तदो महव्वयाई भवे ताई। मू० प्रा० ७.६७. ३. १.६. मूलोत्तर गुण-मुनिके मूल गुण २८ हैं। इनके नामादिके लिए देखिए संधि ४ कडवक ८; उनपर दी गई टिप्पणी
तथा मू. आ. १.२.३. मुनिके उत्तर गुण चौंतीस हैं-बावीस परीषह तथा बारह तप द्वाविंशति परीषह जय-द्वादशविध तपश्चरणभेदेन चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणा भवन्ति""प्र. सा ३.९ की तात्पर्यवृत्तिटीका। बावीस परीषहोंके नाम इस प्रकार हैं-अधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशकं, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, चर्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन । देखिए त. सू. ९.९. । तपके मूलतः दो भेद हैं-आभ्यंतर और बाह्य । इनमेंसे प्रत्येकके छह-छह भेद हैं:आभ्यंतर तपोंके भेद-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सगे और ध्यान
पायश्चित्तं विणयं वेज्जावचं तहेव सज्झायं । माणं च विउसग्गो अन्भतरो तवो एसो ॥ मू. आ. ५.१६२.
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