Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 501
________________ १९६ ] पार्श्वनाथचरित गिनाये हैं। आगे त. सू. ७-२३ में “शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिमशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचारा: " - इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके पाँच अतीचार बतलाए गए हैं। सूत्रोक्त पाँच अतीचारोंका वर्णन श्रावकप्रज्ञप्ति ( ८६ से ९६ ) में भी किया गया है । त. सू. के उक्त सूत्रपर सर्वार्थसिद्धि टीकामें कहा गया है कि दर्शन विशुद्धिके प्रकरण में जिन निशंकतादि अंगोंका व्याख्यान किया गया है उनको ही सूत्रोक्त शंका आदि प्रतिपक्षी दोष समझना चाहिए । टीका में यह भी स्पष्ट कह दिया गया है कि उक्त आठों अंगोंमें से अंतिम अमूढदृष्टिता आदि पाँच अंगों के प्रतिपक्षी दोषोंका प्रस्तुत सूत्र के अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा संस्तव इन दो अतीचारोंमें ही अन्तर्भाव किया गया जानना चाहिए। भगवती आराधनामें सम्यक्त्वके पाँच अतीचारों व चार गुणोंका पृथक-पृथक निर्देश दो निम्न गाथाओंमें किया गया है सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा । परदिट्ठीणपसंसा श्ररणायदा सेवणा चेव || भ. श्री. ४४. उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्लपहावरणा गुणा भणिदा । सम्मत्तविसोधिए उवबृंहणकारया चउरो ॥ भ. श्री. ४५. इस ग्रन्थ में भी सम्यक्त्वके गुण-दोषोंकी व्यवस्था भगवती आराधनाके अनुसार पाई जाती है। केवल पाँचवें अचार के निर्देशमें नाम मात्रका भेद है । भगवती आराधनामें जिसे 'अणायदा सेवणा' ( अनायतनसेवना ) • कहा है उसे यहाँ मूढदृष्टि कहा है । ३. ६. ६. जिणहो गुत्तु ( तीर्थंकर गोत्र ) - जिन भावनाओंसे तीर्थंकरप्रकृतिका बंध होता है वे सोलह हैं । उनके नाम आदि के लिए देखिए त. सू. ६. २४. ३. ६. १० बद्धाउसु ( बद्धायुष्क ) - वह व्यक्ति जिसने आयुकर्मका बंध कर लिया हो । ३. ७. ३. अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षात्रतके प्रभेदोंके लिए इसी संधिके कडवक ९. १० तथा ११ देखिए । ३. ७. १० बारहमिच्ववाय - संभवतः यहाँ पाँच स्थावर, सूक्ष्म और बादर, विकलत्रय और पशु इसप्रकार ( ५+२+१+१) मिथ्यात्व की बारह जीवयोनियोंसे तात्पर्य है । ३. ७. ११. पुहविहे छह - रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियोंमेंसे प्रथम में सम्यक्त्व धारिके उत्पन्न होनेका निषेध नहीं है अतः इसे छोड़ शेष छह नरक पृथिवियोंसे यहाँ तात्पर्य है । इस घत्तेके आशय की यह गाथा है सुट्टिमासु पुढविसु जोइसवरणभवण सव्वइत्थीसु । वारसमिच्छुवाए सम्माइट्ठी ण उववरणा ॥ श्रध. २-६८ को टीका ३. ९. १. इस कडवकर्मे अणुव्रतोंका विवरण है। अहिंसादि पाँच व्रतोंका पूर्णरूपसे पालन महाव्रत और स्थूलरूप से पालन कहलाता है (देखिए त. सू. ७.२ ) । ३. ९.४. मुंडणु—मुंडणके स्थानमें भंडण ग्रहण करनेसे अर्थ स्पष्ट होता है । भंडणका अर्थ कलह है ( दे. मा. ६.१०१ ) । जिन शब्दोंसे कलह उत्पन्न हो उनका त्याग भी सत्यव्रतका पालन है. जैसा कि भगवती आराधना ( ८३१ ) स्पष्ट है। ३. १०. १. गुणत्रत तीन हैं दिग्, अनर्थदण्ड तथा भोगोपभोगपरिमाण । ये श्रावक के मूल गुणोंमें गुणवृद्धि करते हैं अतः इन्हें गुणत्रत कहा गया है अनुबृंहणाद् गुणानामाख्यायन्ति गुणव्रतान्यार्याः । र. श्री. ४.१. ३. ११. २. शिक्षाव्रत चार हैं । इस ग्रन्थमें यहाँ उन सभीका नामसे उल्लेख नहीं है किन्तु उनके पालनकी विधिका वर्णन है । उसके आधारपर उन चारके नाम क्रमशः प्रोषधोपवास, सामायिक, अतिथिसंविभाग और संल्लेखना है। णा. क. १.५ सूत्र ६२ तथा स्थानांग सू० ९१६ में सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है । किन्तु उनके नामादि वहाँ नहीं किए गए हैं। कुन्दकुन्दाचार्यके चारित्रपाहुड ( २५, २६ ) में गुणत्रत तथा शिक्षाव्रतोंकी चर्चा है। इसमें दिग् अनर्थदण्ड और भोगोपभोगपरिमाणको गुणत्रत तथा सामायिक, प्रोषध, अतिथिसंविभाग और संल्लेखना शिक्षात कहा है। सावयधम्म दोहा ( ६५ से ७१ ) में उक्त सातके नाम तथा उनका दो वर्गोंमें विभाजन चारित्रपाहुडके अनुसार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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