Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 496
________________ टिप्पणियाँ पहिली संधि १. १. ३. केवल-णाण-देह ( केवल-ज्ञान-देह )-ज्ञान आत्माका गुण माना गया है अतः जीवका वही सच्चा शरीर है । चौबीसों तीर्थंकरोंने इसे प्राप्त किया है। -कसाय ( कषाय )-क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कपाएँ हैं जो मोहनीय कर्मके ही भेद हैं। १. १.४. सल्ल (शल्य )-माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य हैं। छल-कपटको माया, आत्मामें विपरीत श्रद्धानको मिथ्यात्व तथा संयम, नियम, व्रत आदिको किसी अभिलापासे प्रेरित होकर ग्रहण करना निदान कहा जाता है। १. १.७. बंध-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश ये बंधके चार भेद हैं (त. सू. ८.३)। १.२.१. अडयाल-पयडि-सय-कर्म प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस होती हैं। इनके पूर्ण विवेचनके लिए देखिए संधि ६ कडवक १५ तथा १६ और उनपर दी गयी टिप्पणी।। १.२.२. भविस-गय-वट्टमाण- प्रत्येक कल्पके सुषमा-दुःपमा कालमें चौबीस जिनवर (तीर्थकर) उत्पन्न होते हैं। वर्तमान कल्पमें उत्पन्न हुए जिनवर वर्तमान, गत कल्पोंमें उत्पन्न जिनवर गत जिनवर तथा भाविकल्पोंमें उत्पन्न होनेवाले भविष्य जिनवर कहलाते है। १. २. ५. यह कविकी विनयोक्ति है जो कवियोंकी परिपाटी रही है। कविशिरोमणि कालिदासने भी अपनेको अल्पमति आदि कहा हैक्व सूर्य-प्रभवो वंश : क्व चाल्प-विषया मतिः। र.वं.१.२ मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । र.वं.१.३. १.३.७. मम्मटाचार्य के अनुसार काव्य-रचनाके उद्देश्य यश, धन, व्यवहारज्ञान, अमंगल-अपहरण, परमानन्द तथा मधुर उपदेशकी प्राप्ति हैकाव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये । सद्यःपर-निवृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥ का. प्र.१.२. १.३.९.१० जो भाव कविने आठवीं पंक्तिमें व्यक्त किया है उसीको उसने इन पंक्तियोंमें दृष्टान्त देकर समझाया है। जिस प्रकारसे ऐरावत गजके मदमत्त रहते हुए अन्य बलशाली प्राणियोंको भी मदमत्त होनेका अधिकार है उसी प्रकार अन्य महान कवियोंके होते हुए भी मुझे काव्य करनेका अधिकार है। १.४. १. इस कडवकमें कविने खलोंकी निन्दा की है। काव्यके प्रारम्भमें खलनिन्दा करना एक प्राचीन परिपाटी रही है। परनिन्दा करना तथा दूसरोंमें दोष देखना खलोंका एक विशेष लक्षण है। कवि विल्हणने उनके इस लक्षणको इन शब्दों में व्यक्त किया हैकर्णामृतं सूक्तिरसं विमुच्य दोषे प्रयत्नः सुमहान् खलानाम् । निरीक्षते केलिवनं प्रविष्टः क्रमेलकः कण्टकजालमेव ॥ वि. च.१.२६. १.५. ६. पोयणपुर (पोदनपुर )-विहार में इस नामके नगरका अभी तक कोई पता नहीं चल सका। जिन पोदनपुरोंका अन्यत्र उल्लेख हुआ है उनमेंसे एक अलाहाबादके समीप स्थित है तथा जिसका वर्तमान नाम झूसी ग्राम है। दसरा दक्षिण भारतमें स्थित था तथा पैठन नामसे विख्यात था (ला. इं. ३१४, ३२३)। . -उत्तंग (उत्त'ग)-यह शब्द इस रूपमें वारम्बार आया है; देखिए-१.६.४, १.७.१, १.७.३, १.९.२.४.५.५, ६.१४.४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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