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१८, १२] अनुवाद
[१११ (जीव) देवोंकी कुयोनियों में अनन्तगुना मानस-दुख सहता है। (इस प्रकार मैंने ) संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवकी देवगतिका फल बताया ॥९॥
जिनसे देवगति प्राप्त होती है उन कर्मोंका विवरण जो देवगतिको धर्मसे प्राप्त करते हैं, उनके बारेमें मैं बताता हूँ। हे नराधिप, तुम सुनो। जो व्रत, शील, नियम और संयम धारण करते हैं तथा दुर्धर पाँच महाव्रतोंका पालन करते हैं, जो शिक्षाव्रत और गुणव्रत धारण करते हैं तथा अपने मनको विषयोंकी ओर जानेसे रोकते हैं, जो जिनवरका अभिषेक ( दिनमें ) तीन बार कराते हैं तथा आगम, नियम और योगका परिचिन्तन करते हैं, जो दयावान् , धर्मवान् तथा इन्द्रियोंका दमन करनेवाले हैं, जिन्होंने ऋषि, गुरु और देवकी निन्दा नहीं की, जिन्होंने जिनेन्द्रको पुंज चढ़ाई है तथा जिन-मन्दिर बनवाये हैं वे स्वर्गमें कान्तिसे शोभित तथा आठ गुणोंके स्वामी सुरेश्वरोंके रूपमें उत्पन्न होते हैं । वे सुखसे व्यतीत होते हुए कालको नहीं जानते तथा विशाल-स्तनवाली युवतियोंको आदर देते हैं।
नरक, तिर्यक् , मनुष्य तथा देव इन चारों गतियोंके सम्बन्धमें जो कहा गया है, हे शौरी-नगरीके स्वामी, वह मैंने यथार्थरूपसे बताया ॥१०॥
प्रभंजन द्वारा दीक्षा ग्रहण जिनेन्द्रका वाराणसी आगमन; जिनेन्द्र के पास हयसेन और वामादेवीका आगमन
समस्त शौरी-नगरीका प्रधान प्रभंजन-नृप, जिनेश्वरका भाषण सुनकर अपने नरवरोंके साथ उठ खड़ा हुआ तथा प्रदक्षिणा देकर और निरञ्जनको नमस्कार कर सामन्तोंके साथ जिनदीक्षामें स्थित हुआ। भविकजनोंको प्रतिबोधित कर जिनेश्वर वाराणसी नगरीको गये । जगके सार ( जिनवर ) उपवनमें ठहरे । वहाँ व्रत धारण करनेवाले भविकजन आये । हयसेन-नपने वार्ता सुनी और उनके अंगोंमें हर्षकी मात्रा समाई नहीं। कुलका भूषण तथा उत्तम भूषणों को धारण करनेवाला वह अन्तःपुर (की स्त्रियों) के साथ जिनवरके पास पहुँचा । वार्ताकी जानकारी होनेपर वामादेवी भी प्रसन्न होती हुई अपने पुत्रके पास आईं। माता वामादेवी तथा नृप हयसेनने जिनेश्वरको प्रणाम कर यह कहा
"हे भट्टारक, हे परमेश्वर, आप हमें उस सुभावने शिव-सुखका उपदेश दो तथा इस भयानक संसारके पार उतारो ॥११॥
जिनेन्द्रका हयसेनको उपदेश "कलिकालके दोषोंको दूर करनेवाले तथा समस्त परीषहों और कामका निवारण करनेवाले हे जिनवर. हे परमेश्वर हे प्रभ. तुम वह करो जिससे कि आपके अनुयायी हम लोगोंको, अविचल बोधि प्राप्त हो जाये।" यह सुनकर मोक्षरूपी महापथपर गमन करनेवाले जिनेश्वर स्वामीने कहा-हे हयसेन, तुम महाव्रतोंका पालन करो तथा जिनदीक्षा लेकर परलोकपर दृष्टि डालो। कलिकी रोक-थाम करनेवाले जिनधर्मको छोड़कर दूसरा कोई संसार पार उतारनेवाला नहीं है। जो चारों गतियों तथा कलिकालके दोषों और पापोंका नाश करनेवाले जिनशासनकी आराधना करते हैं, जो शुद्ध सामायिकका पालन करते हैं तथा बड़ी-बडी रात्रियोंमें भोजनका त्याग करते हैं, वे सुव्रती आठवें भवमें निवृत्ति प्राप्त करते हैं तथा मनोहर शिव सुख पाते हैं। पुनश्च जिसका व्रत और सामायिक शुद्ध है उसे शीघ्र ही प्रसिद्ध शिव-सुख मिलेगा।
जो आसनभव्य दिखाई देता है जिन-शासनकी संगति उसे प्राप्त है तथा जो अभव्य और अज्ञान है उसके मनमें वह (जिनशासन ) नहीं बैठता ॥१२॥
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