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१८, १६] अनुवाद
[११३ चक्रायुध नामसे उत्पन्न हुआ। उसके रूपसे ( उसके) कामदेव (होनेकी) शंका होती थी। आभरण, वस्त्र तथा आयुधोंका त्यागकर उस चक्रायुधने दीक्षा ग्रहण की । व्रत, नियम, शील तथा तपसे तपाई हुई देहको धारण करनेवाला, मोहके साथ समस्त कलिकालके दोषोंको दूर करनेवाला तथा धर्मका चिन्तन करनेवाला वह मुनि ज्वलनगिरिपर गया। वह वहाँ कर्मोंको क्षीण करनेवाले दो प्रकारके तप करता था। ( इसी समय ) उस अजगरका महापापी जीव नरकसे निकलकर उस पर्वतपर उत्पन्न हुआ। उसका जन्म म्लेच्छाधिपकी योनिमें हुआ। उस अधर्म करनेवालेका नाम कुरङ्गम था । उसने चक्रायुध मुनिको देखकर उसके शरीरपर सैकड़ों बाणोंसे आघात किया ।
___ म्लेच्छाधिप नरकको प्राप्त हुआ । वहाँ उसने विकराल दुःख सहे । चक्रायुध अवेयक ( स्वर्ग ) में पहुँचा जहाँ अनन्त शुभ सुख हैं ॥१६॥
आठवें जन्मका वृत्तान्त गिरिराजके पूर्वकी ओर विदेहवर्षमें मनुष्यों और देवों द्वारा प्रशंसित रम्य-सुर-विजय है। उसमें प्रभंकरा नामकी
हाँ यशसे युक्त वज्रबाहु नामका राजा था। चक्रायुध स्वर्गसे च्युत होकर उसके घरमें कुलको हर्ष देनेवाले पत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। वह कनकके वर्णका था अतः उसका नाम कनकप्रभ रखा गया । रूपमें उसके समान दूसरा कोई नहीं था । । वह नृप पुरोंसे महान् इस पृथिवीका पालन कर जिन-दीक्षामें स्थित हुआ। उसी समय कनकप्रभने शुभ भावसे सहज ही तीर्थङ्करगोत्रका बंध किया । वह साधु विहार करता हुआ सुकच्छ पहुँचा तथा मदनकी दाहसे रहित होकर ज्वलनगिरिपर स्थित हुआ। उसी समय वह पापदृष्टि कुरङ्गम दुःख-सहन कर नरकसे निकला । वह उसी गिरिपर धवल, लम्बी पूंछवाला तथा लपलपाती जीभवाला सिंह हुआ।
वह श्रेष्ठ मुनि उस पापासक्त सिंहके पैरोंकी चपेटमें आया। उस (सिंह) ने तीक्ष्ण नखोंसे उसके शरीरको चीरफाड़कर सुखकी ओर गमन करनेवाले ( उस मुनि ) को पृथिवीपर डाल दिया ॥१७॥
१८ नौवें तथा दसवें जन्मोंका वृत्तान्त; दसवें जन्ममें जिनेन्द्रसे सम्बन्धित व्यक्ति प्रथम जन्ममें
उनसे किस रूपसे सम्बन्धित थे इसका विवरण वह सिंह रौद्र नरकको प्राप्त हुआ। परमेश्वर भी वैजयन्त (स्वर्ग) को गए। वहाँ अनन्तकाल तक सुख भोगकर शुभ कर्मोंका विशाल संचय करनेवाला तथा जय पानेवाला मैं वाराणसी नगरीमें हयसेनके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ हूँ। जो ( मेरे ) प्रथम जन्ममें पोदनपुरमें धन-धान्यसे समृद्ध विश्वभूति ब्राह्मण हमारा पिता था वही क्रमसे यह हयसेन नराधिप हुआ है। जो उस समय मेरी माता थी वह यही जगके स्वामीकी माता वामादेवी है । जो उस समय (मेरा) भाई कमठ था वह यही असुर है जिसने ( उपसर्ग) परम्परा प्रस्तुत की। जो कमठकी पत्नी हमारी भावज थी, वह य दुर्लभ प्रभावती है। जो उस समय कुल कलंक वसुंधरी मेरी पत्नो थी तथा जो कुटिल और शंकाओंसे व्याप्त थी वह कलाओं, गुणों और लज्जासे युक्त, गणधरकी कन्या तथा स्वयं अर्जिका यह प्रभावती है।
जो अन्य जन्ममें हमारे वैरका कारण हुआ था, उस सबको, हे नागराज, मैंने तुम्हें संक्षेपमें बताया ॥१८॥
हयसेन द्वारा दीक्षाग्रहण; जिनेन्द्रका निर्वाण हयसेन नाना प्रकारके दुखोंकी परम्परासे युक्त अपने अन्य भवोंको सुनकर, धरणीधरके पुत्रको राज्य देकर तथा प्रव्रज्या ग्रहण कर जिन-दीक्षामें स्थित हुआ। परमेश्वरी माता वामादेवी जिनेन्द्रकी शरणमें गई तथा अर्जिका हुई । उसी समय दूसरे अनेक भविकजन हर्ष-पूर्वक जिन-दीक्षामें स्थित हुए। किसीने सम्यक्त्व, किसीने अणुव्रत तथा किसीने शिक्षाबत ग्रहण किये। चतुर्विध-संघके साथ परमेश्वर तथा पाप-रहित जिनप्रभु दर्शनको समझाते हुए, भुवनमें वर्तमान सबको प्रतिबोधित
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