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पार्श्वनाथचरित
[१८,१३
नागराजका आगमन; उसके पूछनेपर जिनेन्द्र द्वारा अपने पूर्वजन्मोंके वृत्तान्तपर प्रकाश; प्रथम जन्मका वृत्तान्त
__ जब जिनेन्द्र हयसेनको समझा रहे थे, तब ( आगेकी घटनाका ) यह कारण उपस्थित हुआ। वहाँ सब महान् सुर, असुर, विद्याधर भवनवासी देव तथा श्रेष्ठ नर आये। उसी समय जिनदरके चरणोंमें प्रणाम कर अनुराग भरे नागराजने कहा"हे भुवनसेवित जिनेश्वर देव, असुरने किस कारणसे उपसर्ग किया ? हे जयश्रीसे युक्त स्वामी, क्या पूर्वका कोई वैर सम्बन्ध ( उससे) था ? आप यह बतायें।" उन वचनोंको सुनकर परमेश्वर जिनेश्वरने यह कहा-इस जम्बूद्वीपके भारतवर्ष में पोदनपुर नामका एक उत्कृष्ट नगर कहा गया है। वहाँ अरविन्द नामका राजा था जो नयवान् तथा सज्जनोंके प्रति अत्यन्त विनयशील था। उस राजाका अनेक विभूतियोंसे सम्पन्न एक विश्वभूति नामका प्रसिद्ध पुरोहित था। उसकी विनयसे युक्त अनुद्धरि नामकी पत्नी तथा कमठ और मरुभति नामके पुत्र थे।
कमठकी प्रिय-गृहिणी वरुणा महासती और अत्यन्त मनोहारिणी थी तथा मरुभूतिकी वसुन्धरी नामकी (गृहिणी) कलाओं और गुणोंसे युक्त तथा विशालस्तनी थी ॥१३॥
दूसरे तथा तीसरे जन्मोंका वृत्तान्त कमठने मरुभूतिकी पत्नीका उसी प्रकारसे अपकर्षण किया, जिस प्रकारसे गज करिणीका करता है। मरुभूतिने राजसभामें न्यायकी माँग की। इससे दोनोंमें वर भाव उत्पन्न हुआ। पापी कमठ नगरसे निकाला गया। उसने रौद्रभावसे पञ्चाग्निका सेवन किया। कालान्तरमें अपने भाईको पाकर कमठने मरुभूतिका प्राणान्त किया। वह मरकर वनमें गजेन्द्र के रूपमें उत्पन्न हुआ । कमठ भी कुक्कुट-नाग हुआ । अरविन्द भी राज्यभार त्यागकर निर्विकार रूपसे जिनदीक्षा में स्थित हुआ। मुनिवरने गजको प्रतिबोधित किया। नागने गजको कुम्भस्थलीपर काटा। जिनवरका स्मरणकर गज सहस्रार-कल्पको गया तथा वह दर्पशील नाग नरकको प्राप्त हुआ।
भयावना कुक्कुट-सर्प अनेक प्रकारके दुख सहता था तथा वह गज तपके कारण स्वर्गलोकमें उत्तम देवोंके सुख भोगता था ॥१४॥
चौथे तथा पाँचवें जन्मोंका वृत्तान्त मेरुके पूर्वमें विदेहक्षेत्रमें सुकच्छविजय नामका विभाग है। वहाँ वैतादयगिरिपर विद्याधरोंका आवास, भुवनमें प्रसिद्ध श्रीतिलक नगर है । वहाँ विद्याधरोंका राजा विद्युद्वेग रहता था। वह रूपमें कामदेव था मानो स्वर्गसे आया हो । गजका जीव पुण्यके कारण समस्त सुरपतिके सुख भोगकर उस (विद्यद्वेग) के पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। उसका नाम किरणवेग था वह कलाओं और गुणोंसे अवतरित देवके समान था। उसने राज्यका भार त्यागकर परमार्थका सार तप ग्रहण किया। तप और नियमोंके प्रभावसे वह किरणवेग कनकगिरिपर गया, जहाँ देवोंका समूह था। इसी समय कलिकालके अनेक दोषोंसे युक्त
कला। वह उसी कनकगिरिपर विशाल तथा कृष्ण देहवाले अजगरके रूपमें यमके समान उत्पन्न हुआ। उस अजगरने किरणवेगको निगल लिया। (निश्चित ही ) वह (किरणवेग) अपने कर्मके फलसे उस नागको मिला ।
अजगर अनेक प्रकारके भयोंसे असुहावने रौद्र नरकमें गया तथा मुनि-किरणवेग-परमेश्वर सुहावने अच्युत (स्वर्ग) में पहुँचा ॥१५॥
छठवें तथा सातवें जन्मोंका वृत्तान्त सुमेरुके पश्चिमकी ओर भुवनमें अजेय प्रभंकरा नामकी पुरी है। वहाँ अनेक लक्षणोंसे भूषित-शरीरवाला वज्रवीर नामका राजा था। मुनि-किरणवेग सुखका अनुभव कर, स्वर्गसे च्युत हो अवतरित हुआ। वह उसके ( वज्रवीरके) पुत्रके रूपमें
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