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१४, २१ ]
अनुवाद
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महानू, अविचल और अचिन्त्य जिनभगवान्को देखर वे स्तब्ध हो गये मानो सैकड़ों हाथोंसे सहसा रोके गये हों। वे एक भी पद उनपर रखने में असमर्थ थे ।
जहाँ राग-रहित जिनवरका भक्त निवास करता है उस प्रदेशमें भी वे असुर, प्रेत, ग्रह, डाकिनी, भूत और पिशाचिनी नहीं जाते फिर वहाँकी क्या चर्चा, जहाँ स्वयं ( जिनवर ) वर्तमान हों ? ॥ १८ ॥
१९
असुरका वृष्टि करनेका निश्चय
उसने अनेक प्रकारके अत्यन्त दुस्सह और बहुत दुर्धर तथा अपार उपसर्ग किये। फिर भी ( वे ) वीतराग ध्यानसे विचलित नहीं हुए। वे भय और कषायोंसे रहित थे अतः अविचलरूपसे स्थित रहे । दुष्ट असुर मनमें लज्जित हुआ तथा कारणके न होते हुए भी पृथिवीपर उतर आया । बल, तेज, शक्ति आदि सामग्रीसे युक्त उसे चिन्ता के भाररूपी विशाल पिशाचने पकड़ा । वह कुदेव अपने मनमें यह विचार करने लगा कि “मैं जिनवर ( के ध्यान ) को भंग करने में असमर्थ नहीं हुआ। यदि मैंने आज इस वैरीका संहार नहीं किया तो मेरा देवत्वसे कोई प्रयोजन न होगा ।" जब वह मनमें इस प्रकारका संकल्प-विकल्प कर ही रहा था तभी उसके मनमें एक उपसर्ग समाया । " मैं धाराओंके द्वारा अत्यन्त भीषण जल-वृष्टि करूँगा । उससे नभ, पृथिवी और समुद्र जलमग्न हो जायँगे ।" ऐसा विचार कर उसने गर्जते हुए विशाल और नाना प्रकारके उत्तम मेघ गगनमें उत्पन्न किये मानो प्रलयके समय चारों दिशाओंसे चार, भीषण और प्रचण्ड समुद्र फूट पड़े हों ।
( उसने ) गर्जते हुए, प्रवर, व्यापक, दुद्धर तथा ग्रीष्मके लिए रौद्र और क्षयकारी घनोंकी उत्पत्तिकी मानो भीषण और भुवनके लिये भयंकर अंजन गिरि अवतरित कर नभमें पहुचाया गया हो ॥ १९॥
२०
मेघों का वर्णन
कोई ( मेघ ) ऊँचे, श्याम-शरीर, विशालकाय और रंगयुक्त थे । कोई विद्युत्-पुंजको देहपर धारण किये थे और इन्द्रधनुष से शोभा - प्राप्त थे । कोई अत्यन्त विस्तीर्ण तथा जल धाराओंसे लम्बमान थे। कोई दीर्घ थे तथा वायुके वेगसे अश्वों के समान दौड़ रहे थे । कोई जल वर्षा रहे थे तथा मार्गको रौंदते हुए जा रहे थे । कोई मेघ मेरुके समान थे तथा मल्लकी तरह आक्रमण करते थे । कोई दीर्घ और कृष्ण आभा-युक्त थे तथा नागके समान देखने में भयावने थे । कोई रौद्र और अत्यन्त विकराल थे मानो प्रचण्ड वज्र हो । कोई दिव्य और वज्र शरीर थे मानो समुद्र वहाँ आया हो। उस मेघमाली असुरने एक ही क्षण में ऐसे मेघ उत्पन्न किये |
डरावने ढंगसे संचार करनेवाले, गोल के समान तथा आधे तिरछे मेघोंसे आकाश छा गया। उन्होंने पृथिवीको अन्धकारमय, आवागमन रहित, कृष्ण, रौद्र और भयंकर किया ॥ २० ॥ २१
मेघों की सतत वृद्धि
जिस प्रकार सरस्वतीदेवी पण्डितजनोंमें बढ़ती है, जिस प्रकार शीलरहित ( पुरुष ) का अपयश बढ़ता है, जिस
जिस प्रकार खूब पठन करने
प्रकार दयावान् और शीलवान् (पुरुष) का धर्म बढ़ता है, जिस प्रकार धनीका परिजन बढ़ता है, वालेका ज्ञान बढ़ता है, जिस प्रकार फेनका समूह बढ़ता है, जिस प्रकार शूरका मान बढ़ता है, हृदय काय बढ़ता है, जिस प्रकार सज्जनका स्वच्छ भाव बढ़ता है, जिस प्रकार मत्त गजका मद के मनमें क्रोध बढ़ता है, जिस प्रकार शुक्ल पक्षमें समुद्र बढ़ता है, जिस प्रकार महान् पापीका पाप बढ़ता है, जिस प्रकार दुष्टकी दुष्टता बढ़ती है, जिस प्रकार सर्पके शरीर में विष बढ़ता है तथा जिस प्रकार कृष्ण मृगका भय बढ़ता है उसी प्रकार मेघ समूह गगन में बढ़ने लगा ।
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जिस प्रकार खल ( पुरुष ) के बढ़ता है, जिस प्रकार मृगेन्द्र
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