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अनुवाद
[१७ होता । उन दोनोंमें पाँच सौ धनुष प्रमाण ( देहवाले ) असंख्य नरश्रेष्ठ उत्पन्न होते हैं। उन दोनोंमें ( मनुष्य ) एक करोड़ पूर्व तक जीवित रहते हैं। कहा गया है कि यही उनकी उत्कृष्ट और परम आयु है। उन दोनोंमें अन्य देव नामको भी नहीं हैं पर नाग और यक्षोंको वहाँ स्थान है।
उन दोनोंमें पापका नाश करनेवाले तीर्थकर सर्वदा उत्पन्न होते रहते हैं तथा प्राप्तऋद्धियोंसे समन्वित और धन्य ऋषि तथा मुनि धर्माख्यानमें तत्पर रहते हैं ॥१२॥
पर्वतोंपर हदोंकी स्थिति, उनसे गंगा आदि नदियोंका उद्गम, लवण समुद्रका वर्णन
हिमवान् , महाहिमवान् , निषध तथा प्रशस्त नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंके ऊपर, उनके शिखरोंपर, विशाल हृद वर्तमान हैं, जो एक सहस्र योजन गहरे होनेसे भयानक हैं। उन हदोंमें जलकी (गहराईके ) प्रमाणवाले पद्म वर्तमान हैं जिनमें देव देवियोंके साथ निवास करते हैं। उनसे गंगा आदि नदियाँ निकली हैं जो गिरि-शिखरोंपरसे पूर्व और पश्चिमकी ओर बहती हैं। इस द्वीपसे दुगुना एक समुद्र वर्तमान है। वह दो लाख योजन ( विस्तारवाला ) और अत्यन्त रौद्र है। वह अथाह है, अगाध है तथा अनन्तजल-युक्त है। उसके जलका अन्त कौन पा सकता है ? वह चालीस योजन गहरा है तथा ज्वारसे विवृद्ध
और तरंगोंसे प्रकृष्ट है। उसकी वेदीका प्रमाण आठ योजन है। उस (वेदी) के चारों ओर वडवानल वर्तमान है। उसका विस्तार एक लाख योजन होता है । पवनके साथ उसमें अनन्त जल वर्तमान है । उसका मुख ( = वार ) दस सहस्र योजन है। उसका जल चन्द्रोदयके समय अत्यधिक बढ़ता है।
(यह ) रत्नाकर रत्नोंसे भरा हुआ है तथा महिमाको धारण किये हुए है। उसके जलका आकलन कौन कर सकता है ? वह मकर तथा मत्स्योंसे व्याप्त है। वह कभी भी एक पद इधर-उधर नहीं होता और न ही अपनी मर्यादाका उल्लंघन करता है ॥१३॥
धातकीखंड, कालोदधि तथा पुष्करार्धद्वीपका वर्णन __ उससे ( समुद्रसे ) दुगुना धातकीखण्ड है, जो चार शत-सहस्र ( = लाख ) योजन ( विस्तारवाला ) है। वहाँ सुवर्णके वर्णके दो मेरु पर्वत हैं जो पूर्व तथा पश्चिम भागोंमें स्थित हैं। वहाँ प्रत्येक (भागके ) चौतीस क्षेत्र हैं। वे सैकड़ों कुलपर्वतों और नदियों द्वारा विभक्त हैं। जम्बूद्वीपमें जो भी नाम नदियों, विजय (क्षेत्रों ) तथा पर्वतोंके हैं यहाँ भी उनके वही नाम हैं। उससे (धातकीखण्डसे ) दुगुना फिर एक समुद्र है। वह ( विस्तारमें ) आठ लाख ( योजन है । उसका नाम कालोद है । वहाँ असंख्य मछलियाँ पाई जाती हैं। उसके परे पुष्करद्वीप है, जिसका मान सोलह लाख योजन है। उसके मध्यमें वलयके आकारका मानुषोत्तर पर्वत है जो गगनको पार करता हुआ स्थित है। (इंस कारणसे उस ) द्वीपका नाम पुष्कराध रखा गया है । वह द्वीप सर्वदा गुणोंसे परिपूर्ण रहता है । वहाँ सुवर्णके दो मेरु पर्वत हैं, जिनमें जिनभवन और नन्दनवन वर्तमान हैं।
उसमें भरत तथा ऐरावत ( क्षेत्रों ) के साथ-ही-साथ विचित्र कुलगिरि, नदियाँ और क्षेत्र भी हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ महान् और असंख्य वन और कानन हैं। वे सभी, जो जम्बूद्वीप और धातकी खण्डमें कहे गये हैं, हैं ॥१४॥
अढ़ाईद्वीपमें क्षेत्रों, पर्वतों आदिका विवरण अढ़ाईद्वीपमें पाँच मेरु और एक-सौ-सत्तर सुखोत्पादक क्षेत्र हैं। वैताढ्य पर्वत भी उतने ही हैं तथा नदियाँ सत्तर हैं। गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ, प्रत्येक चौदह सहस्र ( सहायक नदियों ) के साथ कुलगिरियोंको छोड़कर रत्नाकरों में मिली हैं।
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