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१७, ६ ]
अनुवाद
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नारायणोंकी तथा इस चतुर्विध संघके गणधरोंकी उत्पत्ति कैसे हुई ? साथ ही उनकी ऊँचाई, गोत्र, बल, आयु, नाम, उत्पत्ति और राज्य जो जैसा था, उसे वैसा बताएँ ।”
“अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके छह प्रकारोंसे युक्त यह कालचक्र जैसा स्थित है तथा व्यतीत होता हुआ भी कैसे वर्तमान है. यह आप स्पष्ट करें" ॥३॥
४
कालके भेदः सुषमा - सुषमा - कालका वर्णन
परमेश्वरने रविकीर्तिसे कहा कि एकचित्त होकर यह प्रथम उपदेश सुनो। भरत तथा ऐरावतके दस क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी (काल) होते हैं। (अवसर्पिणी में) सुषमा- सुषमा नामका पहला काल है जो सुखसे समृद्ध रहता है । उसमें देहका प्रमाण तीन कोस होता है तथा आयु भी तीन पल्योंकी जानो। उस कालमें यह पूरा भरत क्षेत्र विचित्र कल्पवृक्षोंसे आच्छादित रहता है । उसमें रवि और चन्द्रका प्रकाश नहीं फैलता । मनुष्य कल्पद्रुमोंसे ही वृद्धिको प्राप्त होते हैं । उस समय यह ( भरत क्षेत्र) भोभूमिके समान रहता है तथा जीव अनेक सुखोंकी राशिका अनुभव करता है। जो युगलोंसे युक्त रहता है ऐसे इस कालका प्रमाण चार कोड़ा - कोड़ी कहा गया है ।
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उसमें आभरणोंसे विभूषित शरीरवाले युगल विविध प्रकारके सुख भोगते हैं । उसमें न क्रोध रहता है, न मोह और नही भय । उसमें न वृद्धावस्था आती है और न अकाल मृत्यु ही होती है ॥४॥
५
वर्ण
सुषमा का उस कालके पश्चात् सुषमाकाल आता है । यह भी अनेक सुखोंसे समृद्ध रहता है। इसमें देहकी ऊँचाई दो को होती है । इसमें न तो इष्टवियोग होता है और न ही क्रोध और मोह रहता है। इसमें आयु दो पल्योपम रहती है तथा मनुष्य सब शुभ भावोंसे युक्त हो निवास करते हैं । यह काल भरत क्षेत्र में तीन कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त वर्तमान रहता है । विचित्र पर उत्कृष्ट दस प्रकारके कल्पतरु दिन-प्रतिदिन निश्चितरूपसे आहार देते हैं । उनमें से कुछ शय्या तथा आसन प्रदान करते हैं, कुछ रत्नोंके द्वारा प्रकाश देते हैं, कुछ खजूर और द्राक्षाफल तथा गन्धयुक्त मधु एवं सुगन्धित मद्य युगुलों को देते हैं, कुछ तरुबर प्रमाणानुसार रत्नोंको जड़कर बनाये गये सोलह आभरणोंकी प्राप्ति कराते हैं तथा कुछ तरु नाना प्रकारकी सुगन्धोंसे युक्त भव्य वस्त्र प्रदान करते हैं ।
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अन्य जन्ममें जो दान सुपात्रोंको भावपूर्वक दिया जाता है वह इस कालमें कल्पतरुओंके रूपमें पुनः प्राप्त होता है ॥५॥
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सुषमा - दुषमा-कालका वर्णन; कुलकरोंकी उत्पत्ति
तीसरे कालके आनेपर सुखराशि यकिञ्चित् कम हो जाती है । उस कालका नाम सुषमा - दुषमा कहा गया है । उसमें मनुष्य कालके कारण मनमें क्लेशयुक्त रहता है । उसमें आयु एक पल्यकी कही गई है । अन्तमें (जीव ) छींक लेकर शरीर त्याग करते हैं । फिर वे स्वर्ग-लोकमें जाकर उत्पन्न होते हैं, जहाँ आयु पाँच पल्योपम होती है। जो युगल भोगभूमिमें मृत्युको प्राप्त होते हैं उनके शरीरको व्यन्तरदेव क्षीरोदधिमें फेंकते हैं । अवसर्पिणीके आदिसे ( अब तक) जो तीन काल होते हैं वे उत्कृष्ट भोगभूमिके समान सुखसे समृद्ध रहते हैं । अवसर्पिणीमें जो अत्यधिक आयु और सुखका अनुभव होता था उसका ( इस कालसे) अन्त होता है । इस कालमें ऊँचाई एक कोस होती है। इस पूरे कालकी अवधि दो कोड़ाकोड़ी है ।
इस कालके अन्तमें इस भारतक्षेत्रमें अनेक लक्षणोंसे युक्त तथा कलाओं, गुणों और नयसे समन्वित चौदह कुलकर पूर्व कालमें उत्पन्न हुए थे ॥६॥
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