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पार्श्वनाथचरित
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दुषमा- सुषमा कालमें शलाकापुरुषों की उत्पत्ति
कुलकरोंने अनेक देश, ग्राम और पुर बसाए तथा कुल और गोत्रकी मर्यादाएँ निश्चित कीं । भरतक्षेत्र में अनुक्रमसे आये 'हुए जब ये तीनों काल समाप्त हो गये तब क्रमके अनुसार चौथा काल आया । उसमें मनुष्यों में धर्मभावकी उत्पत्ति हुई । उस कालको दुषमा- सुषमा कहा गया है। इस कालकी गणना व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर की गई है । उसमें पृथिवीपूजित तीर्थङ्करदेव, चक्रवर्ती, हलधर, तीन खण्डोंके स्वामी प्रतिवासुदेव, अत्यन्त बलवान् चौबीस कामदेव, पुराणों में उल्लिखित त्रेसठ ( शलाकापुरुष ), अनेक केवली, महात्मा, ऋषि, नौ नारायण तथा ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए । इन सभीने जय तथा यश रूपी समुद्रको विस्तारित किया ।
इस चौथे कालमें हलधर और केशवों ( = नारायणों) की यशोगाथा, धर्मका प्रचार, तीर्थोंकी स्थापना, अतिशय और केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ||७||
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दुषमा-कालका वर्णन
भरतक्षेत्रमें पाँचवाँ काल दुषमा ( नामका ) होगा जो अत्यन्त रौद्र और दुःखोंका समुद्र रहेगा । इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त मनुष्य उसमें दुःखित रहेंगे। उस कालका प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष होगा । ( मनुष्य ) निरर्थकता से सौ वर्ष जीवित रहेंगे । उसमें उनकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होगी । उसमें नरपति कपालप्रिय, अर्थलुब्ध तथा एक दूसरेपर क्रुद्ध रहेंगे । वे पुरों, ग्रामों और देशोंको लूटेंगे तथा समस्त जनसाधारणको कष्ट देंगे । अनेक ग्राम ऊजड़ हो जायेंगे और अश्वत्थ वृक्ष प्रचुरता से होंगे । नरपति कन्दराओंमें, पर्वत-शिखरों पर, वनप्रदेश तथा म्लेच्छदेशमें निवास करेंगे । वे मठों, मन्दिरों और विहारोंका विध्वंस करेंगे तथा अपार जलयुक्त सरोवरोंको पूर डालेंगे ।
मनुष्य दुर्गा आदि भक्त होंगे । पाप-बुद्धिवाले वे जीवों की हिंसा करेंगे; जिनवरका उपहास करेंगे तथा परस्त्री और परधनमें उनका मन आसक्त रहेगा || ८ ||
समझाया ॥ ९॥
दुषमा-दुषमा-कालका वर्णन
दुषमा - दुषमा ( नामका ) छठवाँ काल अत्यन्त भीषण तथा दुःखसे परिपूर्ण होगा । उसमें मनुष्यकी आयु सोलह वर्षकी और ऊँचाई एक हाथ होगी । उस कालमें व्रत, नियम तथा धर्म नहीं होगा। सभी मनुष्य अशुभ कर्म करेंगे। वे पर्वतकी गुफाओं या कन्दराओं, जल या थलके दुर्गम स्थानों और विभिन्न वनों में निवास करेंगे। धन-धान्यसे रहित तथा शरीरसे दुर्बल वे कन्द, उदुम्बर और करीरका आहार करेंगे। वे लेन-देन गृह और व्यवहारसे पराङ्मुख, रस और तेलसे अपरिचित तथा पत्तोंके वस्त्र ( धारण करने ) वाले होंगे। वे दुर्मुख, अनिष्टकारी, पापी, दुष्ट, दुःखोंसे त्रस्त, खल, सर्वदा रुष्ट, कठोर और तीक्ष्ण (शब्द) बोलनेवाले, स्वार्थी तथा एक दूसरेपर मनमें क्रुद्ध होंगे। यह दुषमा-दुषमा नामका छठवाँ काल धर्म और अर्थसे रहित तथा दुःखोंसे व्याप्त कहा गया है ।
उसका प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष बताया गया है। इस प्रकारसे जिनेन्द्र ने छहों कालों की अवधि आदिको संक्षेपमें
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तृतीय कालके अन्तमें ऋषभदेवकी तथा चौथेमें अन्य तीर्थकरों की उत्पत्ति
तृतीय कालकी समाप्ति तथा चौथे कालके आरम्भ में गुणोंके भण्डार 'ऋषभ जिनदेव उत्पन्न हुए । उन्होंने धर्मका प्रवर्तन किया । फिर निर्लेप अजित जिनदेवका जन्म हुआ । तत्पश्चात् सम्भव और 'अभिनन्दन हुए । पाँच में जिनवर वीतराग
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