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१७, २४]
अनुवाद
[१०७ २३ रविकीर्ति द्वारा दीक्षा-ग्रहण; जिनेन्द्रका शौरीपुरमें आगमन, वहाँके राजा प्रभंजनका जिनेन्द्रके पास आगमन
जिनवर द्वारा कहा गया यह सब सुनकर रविकीर्तिने देवोंके देवको नमस्कार कर सम्यक्त्व अनुमत अणुव्रतोंका भार ग्रहण किया तथा जो जिस प्रकार बताया गया उसे उसी प्रकार स्वीकार किया। उसी समय रविकीर्तिकी पुत्रीने उठकर सुखी मनसे जिनवरके चरणोंमें प्रणाम किया तथा आर्जिकाओंके समूहके पास दीक्षामें स्थित हुई और अनेक नियमों तथा व्रतोंका पालन करने लगी। फिर परमेश्वर चतुर्विध संघसे युक्त हो देवोंके साथ शौरीपुर पहुँचे। वहाँ प्रभंजन नामका महायशस्वी तथा पृथिवीका पालन करनेवाला राजा निवास करता था। वह हर्षित मनसे सामन्तोंके साथ कामदेवके समान वन्दना और भक्तिके लिए आया । नरनाथने गुणोंसे समृद्ध जिनवरदेवको सिंहासनपर विराजमान देखा ।
नरनाथने अठारह दोषोंसे रहित, सकल परीषह रूपी शत्रओंका नाश करनेवाले तथा असुरों, नरों और नागों द्वारा जिनके चरणोंकी स्तुति की जाती है. उन जिनवरको प्रणाम किया ॥२३॥
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प्रभंजन द्वारा जिनेन्द्रकी स्तुति __हे ज्ञानके महासागर, विमल-देह, सर्वदा श्रेष्ठ तथा मोहको क्षीण करनेवाले, तुम्हारी जय हो। हे शीलसे विभूषित, भुवनके स्वामी, विमल, धवल तथा केवल ज्ञानसे युक्त, तुम्हारी जय हो। हे जिन, अजर, अमर, निर्लेप, नरों और सुरों द्वारा वंदित तथा देवोंके देव, तुम्हारी जय हो। हे भुवनके सूर्य, सौम्य तेजवाले, अद्वितीय, अज्ञेय, अत्यन्त सघन तेजवाले, तुम्हारी जय हो। हे समस्त त्रिभुवनके स्वामी, जीवोंपर दया करनेवाले तथा गुणोंसे महान् , तुम्हारी जय हो। हे अन्धकार तथा चतुर्गतियोंके कर्मोंके नाशक, निर्मल तथा दो प्रकारके धर्मोंका उपदेश देनेवाले, तुम्हारी जय हो। हे वीतराग, तुम्हारे चरणों में गणधर और मुनि नमस्कार करते हैं; तुम कलिके दोषोंको दूर करते हो, तुम्हारी जय हो। हे जिनवर, तुम परमार्थको हृदयमें धारण करनेवालोंमें सिंह हो तथा पाँचों इन्द्रियोंका दमन करते हो, तुम्हारी जय हो । हे प्रातिहार्य-तुल्य, सुमन्त्र-युक्त, अचल, अमल तथा भुवनमें महान् , तुम्हारी जय हो ।
हे जिनवरस्वामी, दर्शन तथा ज्ञानसे विभूषित तुम्हारी जय-जयकार हो । हे पद्मा द्वारा अर्चित, अविचल तथा सुरों द्वारा नमस्कृत, आप हमें बोधि दें ॥२४॥
॥ सत्रहवीं सन्धि समाप्त ॥
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