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पार्श्वनाथचरित
[ १६, १६
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सत्य है कि स्त्रियाँ जहाँ से रत्नोंकी खबर पाती हैं वहाँ जाती हैं। क्षेत्रोंके बीच-बीच में तीस प्रवर कुलगिरि सघनमूल समूहसे युक्त होकर स्थित हैं । उसमें (अढ़ाईद्वीपमें ) अनेक प्रकारके कल्पवृक्षोंसे युक्त तीस भोगभूमियोंका निर्देश है। चूँकि वहाँ देवों के योग्य विचित्र क्रीडास्थल विद्यमान हैं । अतः देव वहाँ आकर क्रीडा करते हैं । वहाँ प्राणियोंके योग्य क्रीडास्थल भी अनेक हैं अतः नाना प्रकारके प्राणी आकर वहाँ निवास करते हैं । कालोदधि तथा लवणोदधि ये दोनों समुद्र अढाईद्वीपमें ही हैं । इस प्रकार यह तिर्यग्लोक अनेक गुणोंके धारण करनेवाले गणधरको स्पष्ट किया गया ।
जनोंके मन और नयनोंको आनन्द देनेवाले जिनेन्द्रने विस्तार में पैंतालीस लाख ( योजन ) तथा आकारमें वलयके समान इस अत्यन्त विस्तृत अढ़ाई - द्वीप - समुद्रका प्रमाण समझाया ॥१५॥
१६
द्वीप समुद्रों में सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या
मानुषोत्तर पर्वत के शिखर तक ही मनुष्योंका गमनागमन है। उसके परे ( मनुष्यों का) गमन नहीं है किन्तु यक्ष, राक्षस, सुर तथा असुर आते-जाते हैं । उसके परे असंख्य द्वीप और सागर हैं जो लोकान्त तक एक राजुके विस्तार में स्थित हैं । इस ( जम्बू द्वीपमें दो सूर्य प्रकाश देते हैं तथा अनेक गुणरूपी प्रदीपोंसे युक्त सागर ( लवणोदधि ) में चार । धातकी खण्डके नभमें बारह चन्द्र और बारह सूर्य प्रकाश देते और अन्धकारका नाश करते हैं । ( अगले- अगले द्वीप - समुद्रों में ) अन्तिम समुद्र आने तक सूर्योकी संख्या दुगुनी - दुगुनी होती गई है । ( अढ़ाईद्वीप के चन्द्र, सूर्य ) मानुषोत्तर पर्वत तक भ्रमण करते हैं तथा दिन और रात्रिका गमनागमन भी क्रमशः करते हैं । असंख्य सूर्य ऊपर-ऊपर घण्टाके आकारसे अन्तरिक्षमें स्थित हैं । ( द्वीप समुद्रोंमें ) जिस क्रमसे सूर्य और चन्द्र कहे गये हैं उसी क्रमसे नक्षत्रों, ग्रहों और राहुओंकी गणना की गई है ।
अभिनव होने से वन्दनीय एवं गगनस्थ प्रत्येक चन्द्रके, नाना प्रकारके नक्षत्रों, ग्रहों और ताराओंसे युक्त परिवार ( की संख्या ) एक हजार आठ है । ( प्रश्न करनेपर ) विद्वान् यही प्रत्युत्तर देते हैं ॥१६॥
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तीन वात- वलयोंका निरूपण
घनपवन, घनोदधि और तनुपवन ( ये तीनों ) समस्त लोकको चारों दिशाओंसे आच्छादित कर स्थित हैं। ये तीनों भी घनके आकारमें अत्यन्त गुँथे हुए हैं और ( लोकके ) तल भागमें वलयके समान हैं तथा अत्यन्त सघन हैं । वहाँ इनमें से प्रत्येक पवन बीस हजार योजन ( मोटा है ) । उस ( भाग ) के ही ऊपर समस्त भुवन स्थित है । उन्होंने शिवप्रदेशको( घनोदधिने ) दो कोससे, ( घनवातने ) एक कोससे तथा ( तनुवातने ) कुछ कम एक कोससे - आच्छादित किया है । इन तीनों पवनोंने समस्त लोकको धारण किया है । यह रहस्य केवलज्ञानसे देखा गया है । जगको धारण करनेमें अन्य कोई समर्थ नहीं है । यह परम अर्थ जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है । न हि यह लोक कूर्म द्वारा अपने मस्तकपर धारण किया गया है और न हि इस जगकी किसीने उत्पत्ति की है । इस प्रकारसे इस जगकी स्थितिका आदि और अन्त नहीं है । मनुष्य जगकी उत्पत्ति कर ही कैसे सकता है ? केवलज्ञानधारी जिनवरने इस सचराचर त्रिभुवनको इसी प्रकार से देखा है ।
विविध गुणोंका भण्डार यह सचराचर जगत् तीनों पवनों द्वारा धारण किया गया है; किसीने इसकी सृष्टि नहीं की है । जिनेन्द्र ने अपने धवल और उज्ज्वल केवलज्ञानसे यह देखा है ||१७||
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कमठासुर द्वारा जिनेन्द्रसे क्षमा-याचना
देवने जिनवरके ( उक्त ) सारगर्भित वचनोंको सुनकर जगके स्वामीकी सेवाको स्वीकार किया । चन्द्र, सूर्य और सुने जिनवरको प्रयत्नपूर्वक प्रणाम किया तथा अपने-अपने घरको लौटे। इसी समय कमठासुरने जिनवरके चरणोंमें सिर रखते
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