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६६] पार्श्वनाथचरित
[१६, १०लिए आतुर रहते हैं। असुरोंकी आयुका प्रमाण एक सागर है तथा नागेन्द्रोंका तीन पल्य जानो। सुपर्ण (कुमारों ) की आयु अढ़ाई ( पल्य ) है । द्वीप ( कुमार ) दो पल्यों तक सुखका अनुभव करते हैं । शेष डेढ़ (पल्य ) निवास करते हैं।
पातालमें निवास करनेवाले तथा नानाप्रकारके देवोंके भवनोंकी संख्याकी गणना करनेपर वे जिनवरके कथनानुसार सात करोड़ बहत्तर लाख कहे गये हैं ॥९॥
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मध्यलोक तथा उसमें स्थित जम्बूद्वीप अब तिर्यग्लोकपर प्रकाश डाला जाये तथा उसका संक्षेपमें यत्किंचित् वर्णन किया जाये। समस्त तिर्यग्लोक विस्तारमें एक राजु है तथा वलयका आकार लिये हुए स्थित है। अढ़ाई सागरोंका जो मान है वह एक ही राजुके अन्तर्गत है। उसमें रोमोंकी जो भी कोई संख्या हो उतने ही सागर और द्वीप इस लोकमें हैं। उसमें पहला द्वीप जम्बूद्वीप है जो नन्दन वनों, काननों तथा गिरियोंसे अत्यन्त शोभित है। उसके मध्यमें श्रेष्ठ मेरुगिरि शोभायमान है मानो वह गिरनेवाले देवोंके लिए आधार-स्तम्भ हो । उससे लगे हुए चौंतीस क्षेत्र हैं। वह विद्याधरों तथा पृथिवीचारी प्राणियोंका निवास स्थान है। उसके दक्षिणमें भरतक्षेत्र है जो वैताढ्य ( पर्वत ) द्वारा दो भागोंमें विभक्त है।
वह ( भरतक्षेत्र ) छह खण्डोंसे युक्त, सुरसरिता द्वारा विभक्त तथा वनों और काननोंसे समृद्ध है । उसके पाँच खण्डोंमें डरावने म्लेच्छोंके निवास हैं । (छठवाँ ) आर्यखण्ड सर्वथा शुद्ध है ॥१०॥ .
जम्बूद्वीपके सात क्षेत्रों और छह पर्वतोंकी स्थिति हिमवान् नामका उत्तम पर्वत जो श्रेष्ठ कुलगिरि है वह पूर्वसे पश्चिम तक फैला हुआ है। फिर हिमवर्ष (= हैमवत ) नामकी भोगभूमि है, जहाँ महान् और श्रेष्ठ कल्पतरु बहुलतासे हैं । दूसरा हिमवान् (= महाहिमवान् ) अत्यन्त प्रचण्ड है । वह महीतलपर मानदण्डके समान स्थित है। इसके बाद हरिवर्ष नामकी उत्तम भोगभूमि है जहाँ सुखी युगल सर्वदा निवास करते हैं। फिर निषधगिरि नामका श्रेष्ठ कुलपर्वत है जिसका शिखर रविकी किरणोंसे आताम्र है। तदनन्तर सुरकुरु नामकी विशाल भोगभमि है। वहाँ महान् कल्पतरु सब समय पाये जाते हैं। ये सब अचलेन्द्रके दक्षिणमें शोभा देते हैं। उत्तरकरु ( उसकी) उत्तर दिशामें है। नीलगिरि निषध (गिरि ) के समान आकारवाला है। पोएम (= रम्यक ) वर्ष अनेक कल्पवृक्षोंसे सुशोभित है। तदनन्तर पवित्र और महान् पर्वत रुक्मगिरि नामका है। वह ऐसा प्रतीत होता है मानो शेषनाग आकर सोया हो । उसके बाद हैरण्यवर्ष नामकी भोगभूमि है जहाँ के भोगविलास अनुपम हैं। फिर शिखरीगिरि है जो गगनको छूता है तथा उसने पूर्व
और पश्चिमके समुद्रोंके विस्तारको रोका है। उस ( द्वीप ) के अन्तमें छह खण्डोंसे युक्त तथा अत्यन्त महान् ऐरावत क्षेत्र विद्यमान है।
विविध प्रकारसे विचित्र भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें आयुबलका प्रमाण समान है। उनमें अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी अपने छहों भेदोंके साथ वर्तमान है। यही काल-चक्र वहाँ फल देता है ॥११॥
पूर्व तथा अपर विदेहका वर्णन गिरिराजकी पूर्व दिशामें (पूर्व ) विदेह तथा पश्चिमकी ओर पश्चिम विदेह है। प्रत्येकमें सोलह-सोलह विजय ( नामक क्षेत्र ) होते हैं । वे ( क्षेत्र ) पर्वतों और नदियों के कारण एक-दूसरेसे विभक्त हैं। उन दोनोंमें ऊँचाई एवं आयु एक-सी है। उनमें दषमा-काल-चक्र नहीं आता। उन दोनोंमें सुषमा नामका काल ही रहता है। इसमें किसी प्रकारका सन्देह मनमें नहीं लाना चाहिए। उन दोनोंमें पृथिवी द्वारा सेवित वासुदेवोंका, हलधरों (= बलदेवों) का तथा चक्रवर्तियोंका पतन नहीं
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