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पार्श्वनाथचरित
[ १६, ४
मुख आकारका है । उसकी चौड़ाई पाँच राजु है । लोकका शिखर उत्कृष्ट है, छत्रके आकारका है तथा विस्तार में एक राजु है । अत्यन्त महान् तथा जगमें अचिन्त्य सिद्धलोक तीन पवनों के बीच में स्थित है । उसकी चौड़ाई आठ योजन है । उसमें दृष्टि न दिखाई देनेवाले असंख्य सिद्ध विद्यमान हैं ।
गोक्षीरके समान धवल और उज्ज्वल, चन्द्रकी किरणों के समान निर्मल, पुण्योंसे पवित्र, विस्तार में पैंतालीस लाख (योजन ) तथा छत्रके आकारका, कल्याणकारी और शुभकारी यह निलय स्थित है || ३ ||
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सात नरक-भूमियोंका वर्णन
गिरिराजके नीचे की ओर सात नरक स्थित हैं, जहाँ पापमें प्रसक्त जीव जाते हैं । ( पहला ) नरक रत्नप्रभ है जो अत्यन्त रौद्र है । दूसरा शर्कराप्रभ है जो दुखका समुद्र है । ( तीसरा ) बालुकाप्रभ और ( चौथा ) पंकप्रभ नरक दुखदायी है । ( पाँचवाँ ) धूमप्रभ, (छठवाँ ) तम और ( सातवाँ ) महातम (नरक) अनिष्टकारी हैं। पहले (नरक) में आयुका प्रमाण एक सागर है । तत्पश्चात् ( दूसरेमें) तीन, ( तीसरे में ) सात और ( चौथेमें) दस (सागर) जानो । ( पाँचवें में ) सत्रह और (छठवें - में ) बाबीस ( सागर आयु प्रमाण ) है। सातवें नरक में ( आयु प्रमाण ) तेतीस सागर है। रत्नप्रभ आदि प्रथम चार (नरकों) में उष्णताकी दाह तथा निरन्तर रोग रहता है । पाँचवें नरकमें शीत और उष्णता दोनों कही गई हैं। बाकीके (नरकों) में अति दुस्सह शीतका निर्देश है । आगममें जिन विविध और असंख्य दुःखोंका कथन है वे वहाँ (नरकों में ) पाये जाते हैं ।
घोर, रौद्र और अशुभ समुद्र नरकोंकी संख्या चौरासी लाख कही गई है। जिन्होंने अनेक पापोंका बन्ध तथा विविध कुसंग किया है, उनका निवास वहाँ निश्चितरूपसे कराया जाता है || ४ ||
सोलह स्वर्गौका वर्णन
मेरु पर्वत शिखरके ऊपरकी ओर अत्यन्त विशाल और नानाप्रकारके विमान स्थित हैं । सौधर्म नामका प्रथम कल्प अत्यंत महान् है वहाँ अत्यन्त दर्पशील सुर निवास करते हैं। तत्पश्चात् ( दूसरा ) ईशान, (तीसरा ) सनत्कुमार तथा अनेक कल्पोंमें श्रेष्ठ माहिन्द्र ( चौथा ) कल्प हैं । पाँचवाँ ब्रह्म नामका कल्प है। छठवाँ दर्प उत्पन्न करनेवाला ब्रह्मोत्तर कल्प है । ( सातवाँ ) लांच और (आठवाँ ) कापिष्ट महान् कल्प हैं । यहाँ देव एक लाख कल्पों तक निवास करते हैं । तत्पश्चात् कल्पों का प्रधान कल्प शुक्र ( नौवाँ ) कल्प है। उसके बाद महाशुक्र नामके (दशवें) कल्पको जानो । उसके ऊपर आकाशको लाँघकर (ग्यारहवाँ ) शतार और (बारहवाँ ) सहस्रार ये दो ( कल्प ) स्थित हैं । तदनन्तर (तेरहवाँ ) आनत और ( चौदहवाँ ) प्राणत ( कल्प ) विद्यमान हैं । इनमें भोगकी अनन्त सामग्री सदा वर्तमान रहती है और ये सुखके भण्डार हैं। फिर गोक्षीरके समान, अनुपम, . महान् और धगधग करते हुए (पन्द्रहवाँ ) आरण और ( सोलहवाँ ) अच्युत (कल्प ) स्थित हैं । फिर क्रमसे नीचे, ऊपर और मध्यमें नौ ग्रैवेयक स्थित हैं । तत्पश्चात् गगनमें स्थित नौ अनुदिशों और उनके ऊपर पाँच अनुत्तरोंको जानो ।
सुखके भण्डार, अच्छी तरह सजे हुए, चन्द्रकी किरणके समान शोभायमान एवं समस्त गगनको प्रकाशित करनेवाले विमान चउरासी लाख सत्तान्नबे हजार तेईस हैं ||५|
वैमानिकदेवकी आयुका विवरण
सौधर्म और ईशान सुरवर दो सागरों तक महान् सुखका अनुभव करते हैं। अगले दो ( सानत्कुमार एवं माहेन्द्र ) कल्पोंमें महान् सुर सात सागरों तक तथा अनेक सहस्र भोगों से निरन्तर युक्त ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में दस सागरों तक क्रीड़ा करते । अगले चार कल्पोंमें (लांतव एवं, कपिष्टमें ) चौदह तथा ( शुक्र एवं महाशुक्रमें ) सोलह सागर आयु होती है । वहाँ यही ( शतार एवं सहस्रार में ) अट्ठारह तथा ( आनत एवं प्राणतमें ) बीस सागर पर्यन्त आयु प्रमाण
प्रमाण है । अगले दो-दो कल्पों में
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