Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 397
________________ पार्श्वनाथचरित १० देवों द्वारा जिनेन्द्रकी वन्दना सकल सुरेश्वर, गणधर, मुनि तथा श्रेष्ठ ऋषि पुनः पुनः परम कल्याणकारी जिनेश्वरकी अनेक विशेषणों ( के प्रयोग ) से भावपूर्वक बन्दना करने लगे । "तुम अतुल, अनादि, निरञ्जन, शाश्वत, अकल, अमल, अविचल, अविनाशी, निरहंकार, निर्लेप, महान् ईश्वर, एक, अनेक, अजेय, योगेश्वर, भयहीन, अनन्त, पारंगत साधु, तेइसवें सुरगुरु, निष्कलंक, देवोंके पूज्य, सर्वज्ञ, जगमें श्रेष्ठ, जगत् के गुरु, परमदेव, पुरुषोत्तम, वीर, निर्मन्यु, निरायुध, शुद्ध, ऋषभ तथा अजित सम भविकजनों के शुभचिन्तक, प्रकट रूपसे विदग्ध, कलिकालके दोषोंसे रहित, अन्तिम शरीरधारी, शान्त तथा अतुलचल युक्त हो ।” "तुम समस्त जीवोंके प्रति दयावान् हो । विविध गुणोंके भण्डार हो । तुमने कलिकालके दोषोंको दूर किया है । तुम समस्त कलाओं और आगमोंको व्यक्त करनेवाले हो । भुवनके प्रकाशक हो तथा सैकड़ों भवरूपी सागरको सोखनेवाले हो" ॥१०॥ १२] ११ इन्द्रकी जिनेन्द्रसे बोधिके लिए प्रार्थना वे आत्माको सब सुखोंमें स्थापित करनेवाले, सूक्ष्म, निर्लेप, देव, परमात्मा, सौम्य - तेज, अनेक स्थितियोंमें भी अविचल, कर्मका नाश करनेवाले, पण्डितोंके भी पण्डित, केवली, जिनवर, अर्हत, भट्टारक, सिद्ध, बुद्ध, कन्दर्पका हनन करनेवाले, शान्त, महान्, अचिन्त्य, जिनेश्वर, अचल, अमल, त्रिभुवनके स्वामी, भविकोंको आनन्द देनेवाले, भुवनके लिए सूर्य समान, निरन्तर परम, कल्याणकारी सुखके सागर, पुण्योंसे पवित्र, जिनेन्द्र, अनिन्दित, धवल-विमल, शाश्वत सुरों द्वारा वन्दित, अजर, अमर, अक्षय, तीर्थङ्कर, वीतराग, जय (श्री) के स्वामी, कल्याणकारी, भुवनोंके स्वामी, निर्मल, परमात्मा, ईश्वर, देवोंके देव, उत्तम पद प्राप्त तथा एक सौ आठ नामोंसे व्यक्त किये गये हैं । स्वयं इन्द्र उनके चरणों में गिरता है । "हे जिनेश्वर, जग के स्वामी धन, धान्य या राज्य इनमें से हम कुछ नहीं माँगते । जगमें श्रेष्ठ भट्टारक, हम तुम्हारे चरणों में अवलग्न रहें। हमें आप यहाँ यही बुद्धि दें" ॥११॥ [१५, १० १२ गजपुरके स्वामीका जिनेन्द्र के पास आगमन तथा दीक्षाग्रहण इसी समय विशाल और बलिष्ठ बाहुओंवाला स्वयंभू नामका गजपुर ( नामक ) नगरका स्वामी, यह देखकर, कि जिनवरको ज्ञानकी उत्पत्ति हुई है, अपने परिजनों के साथ वैभवपूर्वक वहाँ गया । जिनेन्द्रकी परमऋद्धिको देखकर उसका मन प्रव्रज्यापर गया। जिनवरको प्रणामकर उसने उसी क्षण दीक्षा ले ली। जगत् के स्वामीने उसे उपदेश दिया। अनेक ऋद्धियोंको प्राप्त करनेवाला तथा उपशमित-प्रकृति वह जिनवरका पहला गणधर हुआ । उसकी कन्या प्रभावती थी जो उत्तम कुमारी थी मानो वह युवकों की संहारकर्त्री के रूपमें अवतरित हुई हो। वह जिनदीक्षा ग्रहण कर व्रत तथा नियमोंको धारण करनेवाली तथा चार महाकषायों का नाश करनेवाली हुई । वह संघकी श्रेष्ठ और प्रधान अर्जिका हुई । उसने पाँच इन्द्रियोंके समूहको वशमें किया । उसी समय श्री श्रमण संघ एकत्रित हुआ। वह संयम तथा तपसे परिपूर्ण और मद के लिए अजेय था । सभी संयमधारी श्रावक और श्राविकाएँ भी अनुरागपूर्वक वहाँ आई । वहाँ सब मनुष्य, पृथ्वी के स्वामी, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, इन्द्र, चन्द्र तथा पद्मानन और जयश्री द्वारा आदर प्राप्त लोकपाल तथा कल्पवासी देव एकत्रित हुए ।। १२॥ Jain Education International ॥ पन्द्रहवीं सन्धि समाप्त ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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