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सोलहवीं सन्धि
भुवन द्वारा सेवित गणधर देवने सभामें परम जिनेश्वर भगवान्से अनेक प्रकार की विभिन्नताओंवाले समस्त लोककी उत्पत्तिके विषय में पूछा ।
१
गणधर लोककी उत्पत्तिपर प्रकाश डालने के लिए जिनेन्द्रसे विनति
परिहारशुद्धि संयमको धारण करनेवाले गणधरने जिनवरको प्रणाम कर पूछा - "आप हमें बतायें कि देव, नारकी, तिर्यक् तथा मनुष्य किस प्रकारसे स्थित हैं ? पर्वत, विमान, पृथिवी, समुद्र, नागालय, रौद्र वडवानल तथा असंख्य नदी, क्षेत्र, द्वीप, नक्षत्र, ग्रह, चन्द्र, सूर्य और सागर किस प्रकारसे स्थित हैं ? सागर, पल्योपम, रज्जु तथा घन, प्रकर, सूचि और शैलों का प्रमाण (क्या है) ? यहाँ एक मन्दर सुमेरु नामका (पर्वत) सुना गया है, जिसके शिखरपर अनेक देव निवास करते हैं । हे देव, हे भुवन सेवित, आप विचारकर यह बतायें कि उसका मेरु नाम कैसे पड़ा ? जो जिस प्रमाणसे और जिस प्रकारसे स्थित है, हे जिनेश्वर, आप उसे उसी प्रकार से बतायें। इस जगकी उत्पत्ति किस प्रकारसे हुई ? हे जगके स्वामी, आप हमारा यह अज्ञान दूर करें । "
"हे देव, यह सुख और दुखका आगार, गुण और दोषोंसे परिपूर्ण, अचल, अनादि, शाश्वत गगन स्थित और सचराचर जग किस प्रकार उत्पन्न हुआ हैं" ॥१॥
२
आकाश, लोकाकाश तथा मेरुकी स्थितिपर प्रकाश
जिनवर के मुख से सुखको उत्पन्न करनेवाली तथा भय और मदका नाश करती हुई वाणी प्रस्फुटित हुई - पहिले सब अनन्त आकाश है । उसमें लोकाकाश द्रव्य स्थित है । राजुओं में गणना करनेसे उसका प्रमाण ( क्षेत्रफल ) तीन सौ तेतालीस जानना चाहिए। वह लोक ऊँचाई में चौदह राजु है तथा नीचे, ऊपर और तिरछा ऐसा तीन प्रकारसे स्थित है । उसके मध्य में मेरु नामका पर्वत विद्यमान है जिसका मान निन्यानबे हजार ( योजन ) है | नीचेकी ओर गया हुआ मेरु-पर्वतका भाग स्पर्श में कठोर और कठिन है साथ ही वह विस्तीर्ण और चौड़ा है। ( पृथिवीके ) तलमें वह एक सहस्र ( योजन ) है । वहाँ उसका वर्ण वज्र के समान है । वहाँ वह खर पृथिवीके चित्रशिला भागमें प्रविष्ट है । उस (पर्वत) ने समस्त पर्वतों तथा सागरोंको मापा है, इस कारण से उसका नाम मेरु रखा गया है ।
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त्रस और स्थावर ( जीव ) अनेक भेदोंसे त्रस नाड़ीमें स्थित हैं तथा आकाशमें वर्तमान हैं। इसके बाहर वह (लोक) एकेन्द्रिय (जीवों) से पूर्णतः भरा हुआ है । उसमें तिलमात्र भी स्थान ( रिक्त) नहीं है ॥२॥
३
अधोलोक तथा ऊर्ध्वलोकका वर्णन
मेरु पर्वतके ऊपरकी ओर ऊर्ध्वलोक तथा नीचे की ओर दुःखपूर्ण नरकालय है । ( पर्वतके ) नीचे की ओर उस (लोक) का प्रमाण सात राजु कहा गया है तथा उसके ऊपरकी ओर भी वह सात ही राजु है । उसके तलमें उसका रूप वेत्रासन-समान है तथा उसकी चौड़ाई सात राजु जानो । तिर्यग्लोक झल्लरी के समान है । वह एक राजु कहा गया है। ऊर्ध्वलोक ( मनुष्यके )
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