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१४, २७ ]
अनुवाद
२५ नागराज द्वारा कमलका निर्माण तथा उसपर आरोहण
अमल,
उसने में कोमल, सुगन्धित, निर्मल, पवित्र, विस्तीर्ण आधारयुक्त, विचित्र, खिला हुआ, रम्य, श्वेत- केसर-युक्त भ्रमर-समूह से घिरा हुआ, उत्कृष्ट, विशाल, मनोहर, दीर्घ पखुड़ीवाला, नालरूपी अंग सहित विकसित तथा शुभकारी कमल निर्मित किया । मकरन्दसे पूर्ण, लक्ष्मीका निवास, जलमें उत्पन्न, मनुष्यों की क्रीडासे दूर, अभिनव, अनुपम, तेजयुक्त, विमल, अविचल, दर्पहीन, उपयुक्त विस्तारवाला, उत्तम वर्णवाला, श्रेष्ठ, पृथुल, चौड़ा, भूषित, क्षतिरहित, सम्पूर्ण, विशालकोष-युक्त, निर्मल, अचिन्त्य, अनेक गुणोंसे समन्वित, दोष रहित, श्रेष्ठ सुरोंके मस्तकपर स्थित करने योग्य, पंक- रहित तथा धवल और उज्ज्वल वह ( कमल) चन्द्रमाके समान शोभायमान था । इस प्रकारके पंकजपर नागराज अपनी पत्नियोंके साथ आरूढ हुआ ।
नाग- कन्याओंका वह मनोहर, पीन-स्तन-युक्त, कमलारूढ, प्रसन्न, जिनवरके चरणोंमें प्रणाम करता हुआ, हर्ष युक्त तथा हाथ में वीणा धारण करनेवाला समूह शोभायमान हुआ ||२५||
२६
नागराज द्वारा पार्श्वकी सेवा अहिराजने जिनवर की प्रदक्षिणा की, दोनों पाद-पंकजोंमें प्रणाम किया तथा वन्दना की । फिर उसने जिनेन्द्रको जलसे उठाया मानो देवोंने गगनमें सुरगिरिको उठाया हो । उसने जिनवरके दोनों चरणों को प्रसन्नतासे अपनी गोदीमें रखा तथा तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर अपना लहलहाता हुआ विशाल फण-मंडप फैलाया । नाग धगधगू करते हुए अनेक मणियोंके समूहसे युक्त उत्कृष्ट सात फणसे समन्वित था । उस नागने फणोंके द्वारा पटलको छिद्ररहित बनाया और आकाशसे गिरते हुए जलका अवरोध करता हुआ स्थित रहा । वह बार-बार जिनवरके चरणोंमें प्रणाम करता और कहता कि जगमें मैं अत्यन्त पुण्यवान् हूँ, जो आज जिनेन्द्रके इस अत्यधिक दारुण दुखयुक्त आपत्ति कालमें मैं उपकृत ( सहायक ) हुआ। वह नाग जिनेन्द्रकी परम देहकी रक्षा करता हुआ अपने मनमें उस उपकारका स्मरण करता रहा ।
सुरेन्द्र द्वारा नमस्कृत जिनेन्द्रने नागकुलमें उत्पन्न और दुःखोंसे परिपूर्ण मुझे जो कर्णजाप दिया, वह उपकार आज मैं पूरा कर रहा हूँ || २६ ॥
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२७
असुरकी नागराजको चेतावनी
आकाशसे जैसे-जैसे जल गिरता था वैसे-वैसे वह श्रेष्ठ कमल बढ़ता था । धाराओंकी ध्वनिके साथ गिरा हुआ जल निरर्थक गया । कैसे ? वैसे ही जैसे हवि जलमें व्यर्थ होती है । इसी समय असुरने प्रज्वलित तथा मणियोंके समूहसे युक्त नागराजको देखा। उसने मंगलध्वनि और कलकल करती हुई, बोधि प्राप्त तथा शोभायमान नागकी पत्नियोंके समूह को भी देखा । "मैंने धाराओंके रूपमें गिरता हुआ पानी बरसाया । अहिराजने उसका जिनपर गिरनेसे अवरोध किया । " - असुरको इस प्रकार बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ जो प्रलय कालकी धग धग् करती अग्निके समान था । असुरने नागराजसे यह कहा - "मेरे साथ कलह करना तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं। दो-जिह्वाधारी भयंकर और कृष्णकाय नाग तुम यह असमान कलह मत करो। जिनवरकी रक्षा करना यह तुम्हारा कौन-सा काम है ? ( देखो ) मैं तुम्हारे और उसके भी सिरपर वज्र पटकूँगा ।"
और
“अथवा अत्यन्त तेजस्वी और दूसरोंका सन्ताप करनेवाले शब्दोंसे मुझे क्या करना है ? अभी तेरे देखते हुए शरीरकी रक्षा करते हुए मैं वैरीको मारता हूँ" ||२७|
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