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पार्श्वनाथचरित
[१४, २८
असुर द्वारा नागराजपर अस्त्रोंसे प्रहार “पहिले मैं नागका मान मर्दन करूँगा। तत्पश्चात् वैरीका नाश करूंगा”—यह सोचकर उसने भीषण वज्र फेंका। नागराजने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । तब उसने परशु, भाला और शर समूह छोड़ा । वे भी नागराजके पास तक नहीं पहुँचे । फिर वह पर्वत शिखरोंसे, मार्गका अवरोध करनेवाले फण मण्डपको शीघ्रतासे चूर-चूर करने लगे। फिर भी वह महानुभाव (नाग) विचलित नहीं हुआ । अथवा आपत्तिमें भी मित्र अनुरागपूर्ण होते हैं। विषधरके दुस्सह विषके वातावरणमें व्याप्त होनेसे रिपु नील वर्ण गगनमें एकाध क्षण रहा और फिर व्यर्थके विरोधी भावसे युक्त वह शत्र (द्वारा किये गये) पराभवको सहन न कर सकनेके कारण नागपर ऋद्ध हुआ। फिर वह पर्वत-शिखरोंके टुकड़े तथा वज्र और दारुण वज्रदण्ड (नागपर ) फेंकने लगा। (इनके अतिरिक्त ) जो भी अन्य भीषण शस्त्र उसके पास थे उन सबको उसने फेंका।
उस अवसरपर नभ-तलमें संचार करनेवाली, धवल-छत्र-धारिणी पदमावती देवी, जिनेन्द्रकी विजयको मानो अपने करोंमें लिये हुए हो, विनय करती हुई उपस्थित हुई ॥२८॥
असुरका नागराजको सेवासे विचलित करनेका अन्य प्रयत्न जैसे-जैसे नागराजने जिनवरका परिवेष्टन किया वैसे-वैसे असुरने चौगुना आक्रमण किया। वज्र, पवन और जल तीनों ही उसने कोडे तथा पर्वतोंके शिखरोंको हाथोंसे धकेलकर गिराया। वह वज्रके प्रहारसे पृथिवीको पीटता तथा कुलगिरियोंके श्रेष्ठ शिखरोंको संचालित करता था । व्यन्तर और भवनवासी देव, राक्षस, किन्नर, ग्रह, तारागण, पन्नग, गरुड, यक्ष, कल्पवासी देव, भूत, दैत्य, रक्षस् तथा विद्याधर पलायन कर गये। तब भी नागराजका चित्त विचलित नहीं हुआ। वह गिरते हुए जलसे जिनेन्द्रकी रक्षा करता रहा। यदि आकाशसे कोई वज्र गिरता था तो वह वज्र छत्रपर नष्ट हो जाता था। यदि कृष्ण और रौद्र पानी आता था तो वह वहाँ चन्द्र तथा शंखके वर्णका प्रतीत होता था। जो दुर्गन्धयुक्त तथा दारुण पवन बहता वह भी जिनवरके शरीरके संसर्गसे सुहावना हो जाता। दहकता हुआ तथा विशाल वज्र यदि वहाँ आता तो नष्ट हो जाता, जिनवर तक नहीं पहुँचता था।
तेजस्वी महासुर कमठ जिस-जिस विशाल और भयंकर शस्त्रको छोड़ता वह-वह जलमें परिवर्तित हो जाता, या नभमें चक्कर लगाता या उसके सौ-सौ टुकड़े हो जाते थे ॥२९॥
पार्श्वनाथको केवल-ज्ञानकी उत्पत्ति इस प्रकार जिसका घोर उपसर्ग किया जा रहा था उस शुक्लध्यानमें लीन रहनेवाले, एक मिथ्यादर्शनको छोड़नेवाले, आर्त तथा रौद्र इन दो ध्यानोंका त्याग करनेवाले, तीन गारव और दण्डोंको निःशक्त करनेवाले, चार प्रकारके कर्मों रूपी ईंधनका दहन करनेवाले, विषयरूपी पाँच रिपुओंका नाश करनेवाले, छह प्रकारके रसोंका परित्याग करनेवाले, सात महाभयोंका अन्त करनेवाले, आठ दुष्ट कर्मोको दूर करनेवाले, नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यको धारण करनेवाले, दस प्रकारके धर्मका पालन करनेवाले, ग्यारह ही अंगोंका चिंतन करनेवाले, बारह प्रकारकी तपश्चर्या करनेवाले, तेरह प्रकारके संयमका आचरण करनेवाले, चौदहवें गुणस्थानपर आरोहण करनेवाले, पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंका अस्तित्व मिटानेवाले, सोलह प्रकारके कषायोंका परिहार करनेवाले, सत्रहवें प्रकारके संयमके अनुसार चलनेवाले तथा अट्ठारह दोषोंसे बचनेवाले उस पार्श्वको ( केवलज्ञानकी उत्पत्ति हुई )। मनुष्योंके मनों और नयनोंको आनन्द देनेवाले, पद्मकीर्ति मुनि द्वारा नमस्कृत तथा मनुष्यों और देवों द्वारा प्रशंसित जिनेन्द्रको लोक और अलोकको व्यक्त करनेवाला तथा शुभ गतिको देनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥३०॥
॥चौदहवीं सन्धि समाप्त ॥
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