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व्याकरण।
करण बहुवचन की विभक्तियां 'हि' तथा 'एहि' हैं। 'एण' के समान 'एहि' का उपयोग भी पज्झटिका छंद के पादान्त में अधिक हआ है। इसका कारण वही है जो एण' के उपयोग का है।
स्वर से प्रारम्भ होनेवाली विभक्तियां मूल शब्द में उसके 'अ' का लोपकर उसमें जुडती हैं। जब कब वे शब्द के अन्त में स्वतंत्र अक्षर के रूप में लिखी पायी जाती है । ऐसे स्थानों पर नपुंसकलिंग बहुवचन विभक्ति इँ को छोडकर हम अनुमान कर लेते हैं कि उस संज्ञा में स्वार्थे य जुड़ा था जिसके स्थान पर वह विभक्ति आई है। जहां तक संज्ञा का प्रश्न है यह स्पष्टीकरण यथार्थ है किन्तु वर्तमान कृदन्तों के साथ भी विभक्तियों के आद्य स्वर स्वतंत्र अक्षरों के रूप में लिखे हैं यथा--रूवंत. १. १९. ६, करंत ४. ५. १८ तथा करंतएण २. ४.६, सेवंतएण २. ४. ६. २. ४. ८ आदि । इन स्थानों पर स्वार्थे य (क) जोड़ने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता वहां स्पष्टतः ई के लिए अ तथा एण के लिए अएण उपयुक्त हुआ है । डा० भायाणी के मतानुसार यह उन विभक्तियों का विवृद्ध रूप है ।
(इ) सम्प्रदान की स्वतंत्र कोई विभक्ति नहीं है। इसके लिए संबंध विभक्ति ही का उपयोग किया जाता है यथापुत्तहो देवि सिक्ख हरसियमणु ५. ७. १ तथा पत्तहं दाणु दिण्गु जे भाव १८. ६. ५ ।
(ई) सम्प्रदान के ही समान अपादान एकवचन की भी कोई विभक्ति नहीं है और उसका कार्य भी संबंध विभक्ति से लिया जाता है या हम यह भी कह सकते हैं कि अपादान की विभक्ति भी 'हो' ही है जैसा कि इसके प्रचुर प्रयोग से प्रतीत होता है यथा-णीसरिउ पुरहो ६.४.३, णिग्गउ वरहो ६.१७.१७, पायालहो णीसरिवि १४.२४.१२ आदि ।
अपादान वहुवचन की विभक्ति आहुँ है। इसका उपयोग ग्रंथ में केवल तीन बार हुआ है --वह भी केवल दो शब्दों के साथ - णरवराहुँ ९, १३. ७ तथा दुमाहुँ ९. १३. ७, १२. २. ६ । डा. भायाणी का मत है कि आहुँ भी संबंध बहुवचन की विभक्ति है । किन्तु पा. च. में सर्वत्र संबंध बहुवचन की विभक्ति के लिए हैं का उपयोग किया गया है। आहुँ केवल एक बार (० लोगोत्तमाहुँ ५.१०. ५) प्रयुक्त हुआ है। यह अवश्य है कि पहले बताए गए तीन स्थानों में से प्रथम दो पर (९.१३. ७) हम आहुँ का अर्थ हुँ भी कर सकते हैं और उससे अर्थ में विशेष अन्तर नहीं आता। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि क प्रति में प्रथम दो स्थानों पर आहुँ (९. १३. ७) के लिए 'हँ' तथा तीसरे (१२. २. ६) पर आहुँ के लिए 'हो' प्रयुक्त हुआ है।
(उ) संबंध की विभक्तियां एकवचन के लिए 'हो' तथा बहुवचन के लिए हैं हैं । 'हो' का हस्व रूप हु भी यदा कदा प्रयुक्त हुआ है । दूसरी संधि के प्रथम कडवक में सर्वत्र हो का आहो में परिवर्तन किया है । यह रूप केवल पादान्त में प्रयुक्त हुआ है। संबंध एकवचन की विभक्ति के रूप में आसु (णरवसु-६. ३.१०) तथा स्स (पावसेलस्स तुंगस्स७. १. ४) का एवं बहुवचन के लिए आण ( सत्थाण ७. १. ६, सोक्खाग ७. १. ७, बुद्धाण ७. १. ८) का भी उपयोग किया गया है । अंतिम दो विभक्तियाँ उन स्थलों पर ही प्रयुक्त हैं जो प्राकृत प्रधान भाषा में लिखे गए हैं। संबंध बहुवचन की विभक्ति हँ को बहुत स्थानों पर आहँ का रूप दिया गया है। यथा- तोरणाहँ ६. ३. ५, मय-गलाहँ ६. ३.८, रहवराहँ ६. ३. ९, १०. ४. ५ आदि । हँ का आहँ भी छंद की अपेक्षा से ही किया गया है क्योंकि इसका उपयोग पज्झटिका छंद के पादान्त में ही प्राप्त होता है। पा. च. में सम्बन्ध बहुवचन की विभक्ति आहा का उपयोग सर्वथा नहीं किया गया है।
(ऊ) 'ए' ( लिपिभेद से 'इ' ) अधिकरण एकवचन की तथा 'हि' बहुवचन की विभक्तियां हैं। एक स्थान पर (णहयलेण ११.५.१४) करण एकवचन विभक्ति 'एण' सप्तमी एक वचन विभक्ति के लिए प्रयुक्त हुई है। चार स्थानों
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