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पार्श्वनाथ चरित
११ श्रीनिवासका पराभव
क्रोधसे लाल, दुस्सह तथा धनुष-बाणरूपी अस्त्रसे भयावह वह सुभट गर्जना करता हुआ पुनः उठा तथा ( उसने ) रविकीर्तिकी सेनापर जगत् का नाश करनेवाले शनिके समान आक्रमण किया ।
"तुमने मुझे छलके अवलम्बनसे गिराया है न कि पौरुष के बलसे। किन्तु यह युद्ध करते हुए मुझे उसके फलके बारे में कोई संशय नहीं है ।"
तब उसने रणमें दारुण और जगमें डरावने बाणोंको (धनुषपर) चढ़ाकर छोड़ा तथा छत्र, चिह्न, रथ, योद्धाओं के सिर, अश्व तथा गजोंको काट गिराया ।
[ ११, ११
तीक्ष्ण बाणोंको आवेशपूर्वक छोड़ने लगा । रविकीर्ति उन चमउसने एक ही क्षणमें चार बाण छोड़े जिन्हें रविकीर्तिने स्थिर
वह लक्ष्मीका निवास-स्थान तथा उज्ज्वलवर्ण श्रीनिवास चमाते हुए बाणों को अपने बाणोंसे काटकर पृथिवीपर गिराता था । मनसे काट गिराया । फिर उसने अत्यन्त विशाल आठ बाण आकाशमें छोड़े। वे ऐसे प्रतीत हुए मानो अधम और अनिष्टकारी सर्प दौड़े हों । नरनाथने उन्हें भी काट गिराया मानो चारों दिशाओंको गगनमें बलि दी हो । तत्पश्चात् सोलह दुस्सह बाण ( उसने ) छोड़े। वे यमदूतोंके समान शत्रु सेनाकी ओर आये । नरनाथने अपने बाणोंसे उन विशाल बाणोंको भी छिन्न-भिन्न कर दिया जैसे कि गरुण रौद्र सर्पको करता है । तब उसने बत्तीस और फिर चौसठ बाण ( चलाये ) । नरनाथने उन सबको आकाशमें ही काट गिराया । तदनन्तर वह ( रविकीर्ति ) अपने बाण छोड़ने लगा जिन्होंने पूरे रणक्षेत्रको आच्छन्न किया। रविकीर्तिके बाणोंसे श्रीनिवास उसी तरह आच्छादित हो गया जैसे आकाशमें मेघोंके द्वारा हंस आच्छादित हो जाता है । फिर उसने उसके चिह्न और छत्रके टुकड़े-टुकड़े कर डाले और बाणसे उसका सिर हँसते-हँसते काट गिराया। उस अत्यन्त महान् ( श्रीनिवासको ) धरणीपर वैसे ही गिराया जैसे हंसके द्वारा मृणाल सरोवर में तोड़ा जाता है ।
रोषपूर्ण, भयंकर तथा करोंसे युक्त वह रुंड रणरूपी सरमें उछलने लगा मानो वह शुभकर्ता मृत नृपोंको स्नेहपूर्वक रुधिरजल दे रहा हो ॥११॥
१२
रविकीर्ति और पद्मनाथका युद्ध
तदनन्तर श्वेत छत्र युक्त, श्वेत रथारूढ़ श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने कुलका अलंकार तथा गौरवशाली एवं भीषण पद्मनाथ पैदल सैनिकों और श्रेष्ठ वीरोंके साथ रणमें उतरा ।
उस जूझनेवालेने रविकीर्तिके रथको नष्ट कर दिया । वह ( रविकीर्ति ) रणचातुर्यसे नभस्थलमें उछलकर तत्काल ही दूसरे (रथ) पर सवार हुआ ।
उस रथको भी उसने विशाल गदाके प्रहारसे चूर-चूर कर दिया। रविकीर्ति जब दूसरे पर चढ़ने लगा तो उसने उसके धनुषको काट डाला ।
कुशस्थली नगरके स्वामीने प्रत्यञ्चा- युक्त दूसरे धनुषको लेकर उसपर टंकार की और पद्मनाथके वक्षस्थलपर आघात किया । वह वायुसे झकझोरे गये विशाल वृक्षके समान गिरा । वह श्रेष्ठ योद्धा तत्काल ही चेतना प्राप्त कर हाथमें धनुष लेकर गर्जता हुआ रणभूमिमें उठा । ज्योंही वह धनुषपर बाण चढ़ाने लगा त्योंही उसके रथपर मुद्गर पटका । रणचातुरीसे वह दूसरेपर सवार हुआ । उसके उस रथको भी उसने ( रविकीर्तिने ) वावल्लोंसे नष्ट किया । पद्मनाथ तीसरे स्थपर बैठा। वह भी बाणके प्रहारोंसे तोड़ डाला गया। एक ही क्षणमें वह चौथे रथपर आया । नाना प्रकार के बाणोंसे वह भी आच्छादित किया गया । दूसरे ही क्षण वह पाँचवेंपर आरूढ हुआ । बाणोंसे वह भी पृथ्वीपर ढेर कर दिया गया । तब वह चलशाली छठवें, सातवें और फिर आठवेंकी ओर लपका फिर भी उस सुभटने पार न पाया । ( इसपर ) आकाशमें सब देव और असुर हँस पड़े ।
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